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जैन एवं बौद्ध पारिभाषिक शब्दों के अर्थ निर्धारण और अनुवाद की समस्या
"स्वधर्म" या "स्वगुणों" का भी प्रतीक माना गया है। भगवतीसूत्र में जब यह पूछा गया कि क्या प्रथम पृथ्वी आत्मा है ? तो वहाँ इसका अर्थ स्वधर्म, स्वगुण है। इसी प्रकार जैन आगमों में "अप्पाणवेवासरामि" में "अप्पा" शब्द अपनेपन का सूचक है। बौद्ध परम्परा में "अनत्त" ( आत्मा ) शब्द का प्रयोग "अपना नहीं" इसी अर्थ में हुआ है। इस प्रकार प्राचीन जहाँ बौद्ध परम्परा में भी " अनत्त" (अनात्म) शब्द का प्रयोग अपना नहीं है इसी में हुआ है। इस प्रकार प्राचीन जहाँ बौद्धग्रन्थों के "अत्त" शब्द अपनेपन या मेरेपन का वाचक ही रहा है। वहीं जैन परम्परा में यह चेतना सत्ता का वाचक माना गया। जैन परम्परा में सामान्यतया जीव और आत्मा पर्यायवाची रहें, किन्तु वेदान्त में उन्हें पृथक्-पृथक् अर्थ का वाचक माना गया । उपनिषदों में "आत्मन्" शब्द "ब्रह्म" या परम् सत्ता का वाचक भी रहा है।
इसी प्रकार "धर्म" शब्द को ही लें, उसे जैन परम्परा में अनेक प्रकार से पारिभाषित किया गया। जहाँ " वत्थुसहावोधम्मो" में धर्म को वस्तु का स्वरूप या स्वभाव कहा गया वहीं "सेमियाए आरिए धम्मे पव्वइए" में "धर्म" शब्द समभाव का सूचक माना गया, किन्तु यही शब्द जब धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय में प्रयुक्त हुआ तो वहाँ इसका अर्थ बिलकुल ही बदल गया और वह गति - सहायक द्रव्य के रूप में व्याख्यायित किया गया। ये तो हमने कुछ शब्दों के उदाहरण दिये किन्तु ऐसे अन्य कई शब्द हैं जो कालक्रम में अपना नया-नया अर्थ ग्रहण करते गए और एक ही परम्परा में कालक्रम में वे भिन्न-भिन्न अर्थों में रूढ़ होते चले गये। जैनागमों में कुछ शब्द ऐसे भी मिलते हैं जो अन्य परम्पराओं से उनके मूल अर्थ में ही ग्रहीत हुए थे किन्तु बाद में उनका मूल अर्थ टीकाकारों के समक्ष नहीं रहा और उन्हें भिन्न अर्थ में ही व्याख्यायित किया गया । उदाहरण के रूप में "आचारांग " में प्रयुक्त "विपास्सी" और विपस्सना" शब्द बौद्ध परम्परा के ज्ञान के अभाव में टीकाकारों के द्वारा अन्य अर्थ में पारिभाषित किये गये । कुछ शब्दों का अर्थ तो इसलिए दुर्बोध हो गया कि जिस क्षेत्र का वह शब्द था उस क्षेत्र के सम्बन्ध में टीकाकारों के अज्ञान के कारण वह अन्य अर्थ में ही पारिभाषित किया गया, उदाहरण के रूप में "तालपलम्ब" (ताड़प्रलम्ब) शब्द जो निशीथ में प्रयुक्त हुआ है वह अपने मूल अर्थ में अंकुरित ताबीज का सूचक था किन्तु जब जैन मुनिसंघ राजस्थान और गुजरात जैसे क्षेत्र में चला गया तो वह उसके अर्थ से अनभिज्ञ हो गया और आज जैन परम्परा में तालपलम्ब केले (कदलीफल ) का वाचक हो गया है। इस प्रकार जैनागमों में प्रयुक्त अनेक शब्द टीकाकारों के काल तक भी अपना अर्थ खो चुके थे और टीकाकारों ने उन्हें अपने ढंग से और अपनी परम्परा के अनुसार पारिभाषित करने का प्रयास किया । वसतुतः जो ग्रन्थ जिस-जिस देश और काल में निर्मित होता है उसके शब्दों के अर्थों को उस देश और काल की परम्परा और अन्य ग्रन्थों के आधार पर पारिभाषित किया जाना चाहिए। उस देशकाल के ज्ञान के अभाव में अनेक शब्दों को टीकाकारों ने अपनी कल्पना के अनुसार पारिभाषित कर दिया है। उससे बचना आवश्यक है। आचारांग में "संधि" शब्द आसक्ति या रागात्मकता के अर्थ में प्रयुक्त हुआ था किन्तु टीकाकार भी अनेक स्थलों पर उसे अवसर के रूप में पारिभाषित करते हैं। "आसव" शब्द जैन और बौद्ध परम्पराओं में किन-किन अर्थों से गुजरा है, इसकी चर्चा "एलेक्सवेमेन" ने की है। मोक्ख (मोक्ष) और "निव्वाण" (निर्वाण ) शब्द सामान्यतया जैन परम्परा में पर्यायवाची रूप
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