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प्रो. सागरमल जैन
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निर्णय करना अत्यन्त कठिन है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रतिज्ञा गाथा के अतिरिक्त हमें इन नियुक्तियों के सन्दर्भ में कहीं भी कोई भी सूचना नहीं मिलती है। अतः इन नियुक्तियों की रचना होना संदिग्ध ही है। या तो इन नियुक्तियों के लेखन का क्रम आने से पूर्व ही नियुक्तिकार का स्वर्गवास हो चुका होगा या फिर इन दोनों ग्रन्थों में कुछ विवादित प्रसंगों का उल्लेख होने से नियुक्तिकार ने इनकी रचना करने का निर्णय ही स्थगित कर दिया होगा।
अतः सम्भावना यही है कि ये दोनों नियुक्तियाँ लिखी ही नहीं गईं, चाहे इनके नहीं लिखे जाने के कारण कुछ भी रहे हों। प्रतिज्ञागाथा के अतिरिक्त सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा 189 में ऋषिभाषित का नाम अवश्य आया है।31 वहाँ यह कहा गया है कि जिस-जिस सिद्धान्त या मत में जिस किसी अर्थ का निश्चय करना होता है उसमें पूर्व कहा गया अर्थ ही मान्य होता है, जैसे कि-- ऋषिभाषित में। किन्तु यह उल्लेख ऋषिभाषित मूल ग्रन्थ के सम्बन्ध में ही सूचना देता है न कि उसकी नियुक्ति के सम्बन्ध में। नियुक्ति के लेखक और रचना-काल :
नियुक्तियों के लेखक कौन हैं और उनका रचना काल क्या है ये दोनों प्रश्न एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। अतः हम उन पर अलग-अलग विचार न करके एक साथ ही विचार करेंगे।
परम्परागत रूप से अन्तिम श्रुतकेवली, चतुर्दशपूर्वधर तथा छेदसूत्रों के रचयिता आर्य भद्रबाहु प्रथम को ही नियुक्तियों का कर्ता माना जाता है। मुनि श्री पुण्यविजय जी ने अत्यन्त परिश्रम द्वारा श्रुत-केवली भद्रबाहु को नियुक्तियों के कर्ता के रूप में स्वीकार करने वाले निम्न साक्ष्यों को संकलित करके प्रस्तुत किया है। जिन्हें हम यहाँ अविकल रूप से दे रहे हैं ८ -- 1. "अनुयोगदायिनः -- सुधर्मस्वामिप्रभृतयः यावदस्य भगवतो नियुक्तिकारस्य भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरस्याचार्योऽतस्तान् सर्वानिति।।"
- आचारांगसूत्र, शीलाङ्काचार्य कृत टीका-पत्र 4. 2. "न च केषांचिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादाक्कालाभाविता इत्यन्योक्तत्वमाशङ्कनीयम्,
स हि भगवाश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुतकेवली कालत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाशङ्का ? इति।" उत्तराध्ययनसूत्र शान्तिसूरिकृता पाइयटीका-पत्र 139. "गुणाधिकस्य वन्दनं कर्तव्यम् न त्वधमस्य, यत उक्तम् --" गुणाहिए वंदणयं"। भद्रबाहुस्वामिनश्चतुर्दशपूर्वधरत्वाद् दशपूर्वधरादीनां च न्यूनत्वात् किं तेषां नमस्कारमसौ करोति ? इति। अत्रोच्यते -- गुणाधिका एव ते, अव्यवच्छित्तिगुणाधिक्यात्, अतो न दोष इति।" ओघनियुक्ति द्रोणाचार्यकृतश्टीका-पत्र 3. "इह चरणकरणक्रियाकलापतरूमूलकल्पं सामायिकादिषडध्ययनात्मकश्रुतस्कन्धरूपमावश्यक तावदर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतस्तु गणधरैर्विरचितम्। अस्य चातीव गम्भीरार्थतां सकलसाधु -- श्रावकवर्गस्य नित्योपयोगितां च विज्ञाय चतुर्दशपूर्वधरेण श्रीमद्भद्रबाहुनैतद्व्याख्यानरूपा" आभिणिबोहियनाणं०" इत्यादिप्रसिद्धग्रन्थरूपा नियुक्तिः कृता।" विशेषावश्यक मलधारिहेमचन्द्रसूरिकृत टीका-पत्र 1.
4.
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