________________
जैनधर्म और सामाजिक समता (वर्ण एवं जाति व्यवस्था के विशेष सन्दर्भ में)
मानव
समाज में स्त्री-पुरुष, सुन्दर - असुन्दर, बुद्धिमान - मूर्ख, आर्य-अनार्य, कुलीन - अकुलीन, स्पर्श्य-अस्पर्श्य, धनी-निर्धन आदि के भेद प्राचीनकाल से ही पाये जाते हैं । इनमें कुछ भेद तो नैसर्गिक हैं और कुछ मानव सृजित। ये मानव सृजित भेद ही सामाजिक विषमता के कारण हैं । यह सत्य है कि सभी मनुष्य, सभी बातों में एक दूसरे से समान नहीं होते, उनमें रूप-सौन्दर्य, धन-सम्पदा, बौद्धिक विकास, कार्य-क्षमता, व्यवसायिक योग्यता आदि के दृष्टि से विषमता या तरतमता होती है। किन्तु इन विषमताओं या तरतमताओं के आधार पर अथवा मानव समाज के किसी व्यक्ति विशेष को वर्ग-विशेष में जन्म लेने के आधार पर निम्न, पतित, दलित या अस्पर्श्य मान लेना उचित नहीं है। यह सत्य है कि मनुष्यों में विविध दृष्टियों से विभिन्नता या तरतमता पायी जाती है और वह सदैव बनी भी रहेगी, किन्तु इसे मानव समाज में वर्ग- भेट या वर्ण-भेद का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही पिता के दो पुत्रों में ऐसी भिन्नता या तरतमता देखने में आती है। हम यह भी देखते हैं कि जो व्यक्ति गरीब होता है, वही कालक्रम में धनवान या सम्पत्तिशाली हो जाता है। एक मूर्ख पिता का पुत्र भी बुद्धिमान अथवा प्राज्ञ हो सकता है। एक पिता के दो पुत्रों में एक बुद्धिमान तो दूसरा मूर्ख अथवा एक सुन्दर तो दूसरा कुरुप हो सकता है। अतः इस प्रकार की तरतमताओं के आधार पर मनुष्यों को सदैव के लिए मात्र जन्मना आधार पर विभिन्न वर्गों या वर्णों में बाँट कर नहीं रखा जा सकता है। चाहे वह धनोपार्जन हेतु चयनित विभिन्न व्यावसायिक क्षेत्र हो, चाहे कला, विद्या अथवा साधना के क्षेत्र हो, हम मानव समाज के किसी एक वर्ग विशेष को जन्मना आधार पर उसका ठेकेदार नहीं मान सकते हैं । यह सत्य है कि नैसर्गिक योग्यताओं एवं कार्यों के आधार पर मानव समाज में सदैव ही वर्गभेद या वर्णभेद बने रहेगें, फिर भी उनका आधार वर्ग या जाति विशेष में जन्म न होकर व्यक्ति की अपनी स्वाभाविक योग्यता के आधार पर अपनाये गये व्यवसाय या कार्य होगें । व्यवसाय या कर्म के सभी क्षेत्र सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से खुले होने चाहिए और किसी भी वर्ग विशेष में जन्मे व्यक्ति को भी किसी भी क्षेत्र विशेष में प्रवेश पाने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिये यही सामाजिक समता का आधार है। यह सत्य है मानव समाज में सदैव ही कुछ शासक या अधिकारी और कुछ शासित या कर्मचारी होगें, किन्तु यह अधिकार कभी मान्य नहीं हो सकता कि अधिकारी का अयोग्य पुत्र शासक और कर्मचारी या शासित का योग्य पुत्र शासित ही बना रहे । सामाजिक समता का तात्पर्य यह नहीं है कि मानव समाज में कोई भिन्नता या तरतमता ही नहीं हो। उसका तात्पर्य है
Jain Education International
--
- प्रो. सागरमल जैन
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org