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जैन आगमों में शिक्षा और वर्तमान सन्दर्भ
आवश्यक है। जब तक उसके जीवन में चारित्रिक और नैतिक मूल्य साकार नहीं होंगे, वह अपने शिष्यों पर उनका प्रभाव डालने में समर्थ नहीं होगा। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक कहता है कि सम्यक् शिक्षा के प्रदाता आचार्य निश्चय ही सुलभ नहीं होते।
जैन आगमों में इस प्रश्न पर भी गम्भीरता से विचार किया गया है कि शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी कौन है ? चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में उन व्यक्तियों को शिक्षा के अयोग्य माना गया है, जो अविनीत हों, जो आचार्य का और विद्या का तिरस्कार करते हों, मिथ्या दृष्टिकोण से युक्त हों तथा मात्र सांसारिक भोगों के लिए विद्या प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हों।२४ इसी प्रकार योग्य आचार्य कौन हो सकता है इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि जो देश और काल का ज्ञाता, अवसर को समझने वाला अभ्रान्त, धैर्यवान, अनुवर्तक और अभायावी होता है, साथ ही लौकिक, आध्यात्मिक और वैदिक शास्त्रों का ज्ञाता होता है वही शिक्षा देने का अधिकारी है। इस ग्रन्थ में आचार्य की उपमा दीपक से दी गयी है। दीपक के समान आचार्य स्वयं भी प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं।२६ ।।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आचार्य के गुणों की संख्या 36 स्वीकार की गयी हैं किन्तु ये 36 गुण कौन-कौन हैं इस सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थकारों के विभिन्न दृष्टिकोण हैं। भगवतीआराधना में आचारत्व आदि 8 गुणों के साथ-साथ, 10 स्थित कल्प, 12 तप और 6 आवश्यक, ऐसे 36 गुण माने गये हैं।२७ इसी के टीकाकार अपराजितसूरि ने 8 ज्ञानाचार, 8 दर्शनाचार, 12 तप, 5 समिति और 3 गुप्ति -- ये 36 गुण माने हैं। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग में आचार्य को आठ प्रकार की निम्न गणि सम्पदाओं से युक्त बतलाया गया है -- 1. आचार सम्पदा, 2. श्रुत सम्पदा, 3. शरीर सम्पदा, 4. वचन सम्पदा, 5. वाचना सम्पदा, 6. मतिसम्पदा, 7. प्रयोग सम्पदा (वादकौशल) और 8. संग्रह परिज्ञा (संघ व्यवस्था में निपुणता)।२६ प्रवचनसारोद्धार में आचार्य के 36 गुणों का तीन प्रकार से विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम उपरोक्त 8 गणि-सम्पदा के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 32 भेद होते हैं, इनमें आचार्य, श्रुत, विक्षेपणा और निर्घाटन -- ये विनय में चार भेद सम्मलित करने पर कुल 36 भेद होते हैं। प्रकारान्तर से ज्ञानाचार, दर्शनाचार आर चरित्राचार के आठ-आठ भेद करने पर 24 भेद होते हैं, इनमें 12 प्रकार का तप मिलाने पर 36 भेद होते हैं। कहीं-कहीं आठ गणि सम्पदा, 10 स्थितिकल्प, 12 तफ और 6 आवश्यक मिलाकर आचार्य में 36 गुण माने गये हैं प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार ने आचार्य के निम्न 36 गुणों का भी उल्लेख किया गया है -- 1. देशयुत, 2. कुलयुत, 3. जातियुत, 4. रूपयुत, 5. संहननयुत, 6. घृतियुत, 7. अनाशंसी, 8. अविकत्थन, 9. अयाची, 10. स्थिर परिपाटी, 11. गृहीतवाक्य, 12. जितपर्षत, 13. जितनिद्रा, 14. मध्यस्थ, 15. देशज्ञ, 16. कालज्ञ, 17. भावज्ञ, 18. आसन्नलब्धप्रतिम, 19. नानाविध देश भाषज्ञ, 20. ज्ञानाचार, 21. दर्शनाचार, 22. चारित्राचार, 23. तपाचार, 24. वीर्याचार, 25. सूत्रपात, 26. आहरलनिपुण, 27. हेतुनिपुण, 28. उपनयनिपुण, 29. नयनिपुण, 30. ग्राहणाकुशल, 31. स्वसमयज्ञ, 32. परसमयज्ञ, 33. गम्भीर, 34. दीप्तीमान, 35. कल्याण करने वाला और 36. सौम्य ।२०
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