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महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के जैनधर्म सम्बन्धी मन्तव्यों की समालोचना
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन भारतीय वाङ्मय के विश्रुत विद्वान् थे । हिन्दी साहित्य की विविध- विधाओं में भारतीय वाङ्मय को उनका अवदान अविस्मरणीय है । दर्शन के क्षेत्र में राहुलजी ने जितना अधिक पाश्चात्य दर्शनों, विशेष रूप से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एवं बौद्धदर्शन के सम्बन्ध में लिखा, उसकी अपेक्षा जैनदर्शन के क्षेत्र में उनका लेखन बहुत ही अल्प है। उनके ग्रन्थ "दर्शन-दिग्दर्शन" में वर्धमान महावीर और अनेकान्तवादी जैन दर्शन के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, उसे अथवा बौद्धग्रन्थों में आने वाली जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी समीक्षाओं के हिन्दी अनुवाद को छोड़कर उन्होंने जैनदर्शन के क्षेत्र में कुछ लिखा हो, ऐसा मुझे ज्ञात नहीं । अतः यहाँ जैनदर्शन के क्षेत्र में उनके विचारों की समीक्षा इन्हीं ग्रन्थांशों के आधार पर की गई है।
उन्होंने अपने ग्रन्थ "दर्शन-दिग्दर्शन" में जैन परम्परा का उल्लेख विशेषरूप से दो स्थलों पर किया है. एक तो बुद्ध के समकालीन छः तीर्थंकरों के सन्दर्भ में और दूसरा जैनदर्शन के स्वतन्त्र प्रतिपादन के क्षेत्र में । बौद्धग्रन्थों में वर्णित छः तीर्थंकरों में वर्द्धमान महावीर का उल्लेख उन्होंने सर्वज्ञतावादी के रूप में किया है, किन्तु उन्होंने यह समग्र विवरण बौद्धग्रन्थों के आधार पर ही प्रस्तुत किया है । बुद्ध के समकालीन छ: तीर्थंकरों और विशेष रूप से वर्द्धमान महावीर के सन्दर्भ में यदि वे बौद्धेतर स्रोतों को भी आधार बनाते तो उनके साथ अधिक न्याय कर सकते थे। क्योंकि बौद्धग्रन्थों में महावीर का जो चित्रण निर्ग्रन्थ ज्ञातृपुत्र (नाटपुत्त ) के रूप में है उसमें सत्यांश तो है, किन्तु वह एक आलोचक दृष्टि से ही लिखा गया है, अतः उनके व्यक्तित्व को सम्यक् रूप में प्रस्तुत नहीं करता है । महावीर के सम्बन्ध में दीघनिकाय के आधार पर वे लिखते हैं
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- प्रो. सागरमल जैन
"महावीर की मुख्य शिक्षा को बौद्धत्रिपिटक में इस प्रकार उद्धृत किया गया है निर्ग्रन्थ (जैन साधु) चार संवरों (संयमों) से संवृत्त रहता है। 1. निर्ग्रन्थ जल के व्यवहार का वारण करता है, (जिससे जल के जीव न मारे जावें), 2. सभी पापों का वारण करता है, 3. सभी पापों के वारण करने से वह पाप रहित (धूतपाप) होता है, 4. सभी पापों का वारण में लगा रहता है। चूँकि निर्ग्रन्थ इन चार प्रकार के संवरों से संवृत्त रहता है इसलिए वह गतात्मा (अनिच्छुक ), यतात्मा (संयमी ) और स्थितात्मा कहलाता है ।" [ दर्शनदिग्दर्शन, पृ.
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इस विवरण में महावीर की शिक्षाओं को चार्तुयाम संवर के रूप में प्रस्तुत करते हुए, उन्होंने जिस चार्तुयाम संवर का उल्लेख किया है, वस्तुतः वह चार्तुयाम संवर का मार्ग महावीर का नहीं, पार्श्व का है। परवर्तीकाल में जब पार्श्व की निर्ग्रन्थ परम्परा महावीर की परम्परा में
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