________________
डॉ. सागरमल जैन
177
उस स्तर पर कभी नहीं उतरी, जैसा कि खजुराहो के मन्दिरों में उसे अंकित किया गया है। वस्तुतः इस प्रकार के अंकनों का कारण जैन श्रमणों का चारित्रिक पतन नहीं है, अपितु धार्मिक विद्वेष और असहिष्णुता की भावना है। स्वयं प्रो. त्रिपाठी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए लिखते हैं --
The existence of these temples of different faiths at one site has generally, upto now, been taken indicative of an atmostphere of religious toleration and amity enabling peaceful co-existence. This long e stablished notion in the light of proposed interpretation of erotic scenes requires modification. There are even certain sculptures on the temples of khajuraho, which clearly reveal the existence of religious rivalary and conflict at the time (Ibid, p. 99-100)
किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकार के विद्वेष पूर्ण अंकन जैन मन्दिरों में हिन्दू संन्यासियों के प्रति भी हैं ? जहाँ तक मेरा ज्ञान है खजुराहो के जैन मन्दिरों में एक अपवाद को छोड़कर प्रायः ऐसे अंकनों का अभाव है और यदि ऐसा है तो वह जैनाचार्यों की उदार और सहिष्णु दृष्टि का ही परिचायक है। यद्यपि यह सत्य है कि इसी युग के कतिपय जैनाचार्यों ने धर्म-परीक्षा जैसे ग्रन्थों के माध्यम से सपत्नीक सराग देवों पर व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं और देव मूढ़ता, गुरु मूढ़ता और धर्म मूढ़ता के रूप में हिन्दू परम्परा में प्रचलित अन्धविश्वासों की समीक्षा भी की है, किन्तु, इसके बावजूद खजुराहो के जैन मन्दिरों में हिन्दू देवमण्डल के अनेक देवों का सपत्नीक अंकन क्या जैनाचार्यों की उदार भावना का परिचायक नहीं माना जा सकता ?
वस्तुतः सामन्यतया जैन श्रमण न तो आचार में इतने पतित थे, जैसा कि उन्हें अंकित किया गया है और न वे असहिष्णु ही थे। यदि वे चारित्रिक दृष्टि से इतने पतित होते तो फिर वासवचन्द्र महाराज धंग की दृष्टि में सम्मानित कैसे होते ? खजुराहो के अभिलेख उनके जन-समाज पर व्यापक प्रभाव को सूचित करते हैं। कोई भी विषय लम्पट श्रमण जन-साधारण की श्रद्धा का केन्द्र नहीं बन सकता है। यदि जैन श्रमण भी विषय-लम्पटता में वज्रयानी बौद्ध श्रमणों एवं कापालिकों का अनुसरण करते तो कालान्तर में नाम शेष हो जाते। जैन श्रमणों पर समाज का पूरा नियन्त्रण रहता था और दुश्चरित्र श्रमणों को संघ से बहिष्कृत करने का विधान था, जो वर्तमान में भी यथावत् है। खजुराहो के जगदम्बी आदि मन्दिरों में जैन श्रमणों का जो चित्रण है वह मात्र ईर्ष्यावश उनके चरित्र-हनन का प्रयास था। यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ये अंकन सामान्य हिन्दू परम्परा के जैनों के प्रति अनुदार दृष्टिकोण के परिचायक नहीं हैं। क्योंकि सामान्य हिन्दू समाज जैनों के प्रति सदैव ही उदार और सहिष्णु रहा है। यदि सामान्य हिन्दू समाज जैनों के प्रति अनुदार होता तो उनका अस्तित्व समाप्त हो गया होता। यह अनुदार दृष्टि केवल कौलों और कापालिकों की ही थी, क्योंकि इनके लिये जैन श्रमणों की चरित्रनिष्ठा ईर्ष्या का विषय थी। ऐतिहासिक आधारों पर भी कौलों और कापालिकों के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org