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प्रो. सागरमल जैन
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दक्षिण भारत में जातिवाद का प्रभाव जैन समाज पर भी आया और मध्यकाल में मांतग, आदि जाति- जुंगित ( निम्नजाति) एवं मछुवारे, नट आदि कर्म - जुंगित व्यक्तियों को श्रमण संस्था में प्रवेश के अयोग्य माना गया। जैन आचार्यों ने इसका कोई आगमिक प्रमाण न देकर मात्र लोकापवाद का प्रमाण दिया, जो स्पष्ट रूप से इस तथ्य का सूचक है कि जैन परम्परा को जातिवाद बृहद् हिन्दू प्रभाव के कारण लोकापवाद के भय से स्वीकारना पड़ा।
इसी के परिणाम स्वरूप दक्षिण भारत में विकसित जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा में जो शूद्र की दीक्षा एवं मुक्ति के निषेध की अवधारणा आई, वह सब ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव के कारण ही था । यद्यपि हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि दक्षिण में जो निम्न जाति के लोग जैनधर्म का पालन करते थे, वे इस सबके बावजूद भी जैनधर्म से जुड़े रहे और वे आज भी पंचम वर्ण के नाम से जाने जाते हैं । यद्यपि बृहद् हिन्दू समाज के प्रभाव के कारण जैनों ने अपने प्राचीन मानवीय समता के सिद्धान्त का जो उल्लंघन किया, उसका परिणाम भी उन्हें भुगतना पड़ा और जैनों की जनसंख्या सीमित हो गयी ।
विगत वर्षों में सद्भाग्य से जैनों में विशेष रूप से श्वेताम्बर परम्परा में यह समतावादी दृष्टि पुनः विकसित हुई है। कुछ जैन आचार्यों के इस दिशा में प्रयत्न के फलस्वरूप कुछ ऐसी जातिया जो निम्न एवं क्रूरकर्मा समझी जाती थी, न केवल जैन धर्म में दीक्षित हुई अपितु उन्होंने अपने हिंसक व्यवसाय को त्याग कर सदाचारी जीवन को अपनाया है। विशेष रूप से खटिक और बलाई जातियाँ जैन धर्म से जुड़ी हैं। खटिकों (हिन्दू- कसाईयों ) के लगभग पाँच हजार परिवार समीर मुनिजी की विशेष प्रेरणा से अपने हिंसक व्यवसाय और मदिरा सेवन आदि व्यसनों का परित्याग करके जैन धर्म से जुड़े और ये परिवार आज न केवल समृद्ध व सम्पन्न है, अपितु जैन समाज में भी बराबरी का स्थान पा चुके हैं। इसी प्रकार बलाईयों ( हरिजनों ) का भी एक बड़ा तबका मालवा में आचार्य नानालाल जी की प्रेरणा से मदिरा सेवन, मांसाहार आदि त्यागकर जैनधर्म से जुड़ा और एक सदाचार पूर्ण जीवन व्यतीत करने को प्रेरित हुआ है, ये इस दिशा में अच्छी उपलब्धि है । कुछ अन्य श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन आचार्यों एवं मुनियों ने भी बिहार प्रान्त में सराक जाति एवं परमार क्षत्रियों को जैन धर्म से पुनः जोड़ने के सफल प्रयत्न किये हैं। आज भी अनेको जैनमुनि सामान्यतया निम्न कही जाने वाली जातियों से दीक्षित हैं और जैन संघ में समान रूप से आदरणीय हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि जैनधर्म सदैव ही सामाजिक समता का समर्थक रहा है ।
जैनधर्म में वर्णव्यवस्था और जातिव्यवस्था के सन्दर्भ में जो चिन्तन हुआ उसके निष्कर्ष निम्न हैं:
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1. सम्पूर्ण मानव जाति एक ही है क्योंकि उसमें जाति भेद करने वाला ऐसा कोई भी स्वाभाविक लक्षण नहीं पाया जाता जैसा कि एक जाति के पशु से दूसरे जाति के पशु में अन्तर होता है।
2. प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। वर्ण एवं जातिव्यवस्था स्वाभाविक योग्यता के आधार
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