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138 पर्यावरण के प्रदूषण की समस्या और जैनधर्म
नल की टोटी खोलकर हम उसे बिना परिश्रम के पा लेते हैं। यदि कुओं से स्वयं जल निकाल कर और उसे दूरी से घर पर लाकर इसका उपयोग करना हो तो जल का मूल्य क्या है, इसका हमें पता लगे। चाहे इस युग में जीवनोपयोगी सब वस्तुओं के मूल्य बढ़े हों, किन्तु जल तो सस्ता ही हुआ है। जल का अपव्यय न हो इसलिये प्रथम आवश्यकता यह है कि हम उपभोक्ता संस्कृति से विमुख हो। जहाँ पूर्व काल में जंगल में जाकर मल विसर्जन, दातौन, स्नान आदि किया जाता, वहाँ जल का कितना कम उपयोग होता यह किसी से छिपा नहीं है। पुनः वह मल एवं जल भी जंगल के छोटे पौधों के लिये खाद व पानी के रूप में उपयोगी होता था। आज की पाँच सितारा होटलों की संस्कृति में प्रत्येक व्यक्ति पहले से पचास गुना अधिक जल का उपयोग करता है। जो लोग जंगल में मल-मूत्र विसर्जन एवं नदी किनारे स्नान करते थे उनका जल का वास्तविक व्यय दो लिटर से अधिक नहीं था और उपयोग किया गया जल भी या तो पौधों के उपयोग में आता था फिर मिट्टी और रेत से छनकर नदी में मिलता, किन्तु आज पाँच सितारा होटल में एक व्यक्ति कम से कम पाँच सौ लिटर जल का अपव्यय कर देता है। यह अपव्यय हमें कहाँ ले जायेगा, यह विचारणीय है। वायुप्रदूषण का प्रश्न
वायुप्रदूपण के प्रश्न पर भी जैन-आचार्यों का दृष्टिकोण स्पष्ट था। यद्यपि प्राचीन काल में वे अनेक साधन, जो आज वायुप्रदूषण के कारण बने हैं, नहीं थे मात्र अधिक मात्रा में धूम्र उत्पन्न करने वाले व्यवसाय ही थे। धूम्र की अधिक मात्रा न केवल फलदार पेड़-पौधों के लिये अपितु अन्य प्राणियों और मनुष्यों के लिए किस प्रकार हानिकारक है, यह बात वैज्ञानिक गवेषणाओं और अनुभवों से सिद्ध हो गयी है। जैन आचार्यों ने उपासकदशासूत्र में जैन गृहस्थों के लिये स्पष्टतः उन व्यवसायों का निषेध किया है, जिनमें अधिक मात्रा में धूम उत्पन्न होकर वातावरण को प्रदूषित करता हो। वायुप्रदूषण का एक कारण फलों आदि को सड़ाकर उनसे शराब आदि मादक पदार्थ बनाने का व्यवसाय भी है। जिसका जैन गृहस्थ के लिए निषेध है। वायुप्रदूषण को रोकने और प्रदूषित वायु, सूक्ष्म कीटाणुओं एवं रजकण से बचने के लिये जैनों में मुख वस्त्रिका बाँधने या रखने की जो परम्परा है, वह इस तथ्य का प्रमाण है कि जैन आचार्य इस सम्बन्ध में कितने सजग थे कि प्रदूषित वायु और कीटाणु शरीर में मुख एवं नासिका के माध्यम से प्रवेश न करें और हमारा दूषित श्वास वायुप्रदूषण न करें।
पर्यावरण के प्रदूषण में आज धूम्र छोड़ने वाले वाहनों का प्रयोग भी एक प्रमुख कारण है। यद्यपि वैज्ञानिक प्रगति के इस युग में यह बात हास्यास्पद लगेगी, कि हम पुनः बैलगाड़ी की दिशा में लौट जाये, किन्तु यदि वातावरण को प्रदूषण से मुक्त रखना है तो हमें हमारे नगरों और सड़कों को इस धूम्र प्रदूषण से मुक्त रखने का प्रयास करना होगा। जैन मुनि के लिये आज भी जो पदयात्रा करने और कोई भी वाहन प्रयोग नहीं करने का नियम है वह चाहे हास्यास्पद लगे, किन्तु पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने और मानव स्वास्थ की दृष्टि से वह कितना उपयोगी है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता। आज की हमारी उपभोक्ता संस्कृति में हम एक ओर एक फलांग भी जाना हो तो वाहन की अपेक्षा रखते हैं तो दूसरी ओर डाक्टरों के
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