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प्रो. सागरमल जैन
परावर्तना से अर्थात् पठित पाठ के पुनरावर्तन से व्यंजन (शब्द - पाठ) स्थिर होता है और जीव पदानुसारिता आदि व्यंजना - लब्धि को प्राप्त होता है।
भन्ते ! अनुप्रेक्षा से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
अनुप्रेक्षा अर्थात् सूत्रार्थ के चिन्तन-मनन से जीव आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणादि सात कर्मों की प्रकृतियों के प्रगाढ़ बन्धन को शिथिल करता है। उनकी दीर्घकालीन स्थिति को अल्पकालीन करता है। उनके तीव्र रसानुभाव को मन्द करता है । बहुकर्म प्रदेशों को अल्प-प्रदेशों में परिवर्तित करता है। आयुष्यकर्म का बन्ध कदाचित् करता है, कदाचित् नहीं भी करता है। असातावेदनीयकर्म का पुनः पुनः उपचय नहीं करता है । जो संसार अटवी अनादि एवं अनन्त है, दीर्घमार्ग से युक्त है, जिसके नरकादि गतिरूप चार अन्त (अवयव) है, उसे शीघ्र ही पार करता है ।
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भन्ते ! धर्मकथा (धर्मोपदेश ) से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
धर्म कथा से जीव कर्मों की निर्जरा करता है और प्रवचन (शासन एवं सिद्धान्त ) की प्रभावना करता है। प्रवचन की प्रभावना करने वाला जीव भविष्य में शुभ फल देने वाले पुण्य कर्मों का बन्ध करता है 1
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इसी प्रकार स्थानांग सूत्र में भी शास्त्राध्ययन के क्या लाभ हैं ? इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें कहा गया है कि सूत्र की वाचना के 5 लाभ हैं. 1. वाचना से श्रुत का संग्रह होता है अर्थात् यदि अध्ययन का क्रम बना रहे तो ज्ञान की वह परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रहती है। 2. शास्त्राध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति से शिष्य का हित होता है, क्योंकि वह उसके ज्ञान की प्राप्ति का महत्वपूर्ण साधन है। 3. शास्त्राध्ययन अर्थात् अध्यापन की प्रवृत्ति बनी रहने से ज्ञानावरण कर्म की निर्जरा होती है अर्थात् अज्ञान का नाश होता है। 4. अध्ययन-अध्यापन की प्रवृत्ति के जीवित रहने से उसके विस्मृत होने की सम्भावना नहीं रहती है। 5. जब श्रुत स्थिर रहता है तो उसकी अविच्छिन्न परम्परा चलती रहती है।
स्वाध्याय का प्रयोजन
स्थानांगसूत्र (5) में स्वाध्याय क्यों करना चाहिए इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह बताया गया है कि स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजन होने चाहिए
1. ज्ञान की प्राप्ति के लिये 2. सम्यक ज्ञान की प्राप्ति के लिये 3. सदाचरण में प्रवृत्ति के हेतु 4. दुराग्रहों और अज्ञान का विमोचन करने के लिये 5. यथार्थ का बोध करने के लिए या यथा अवस्थित भावों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ।
आचार्य अकलंक ने तत्वार्थराजवार्तिक, 9 / 25 में स्वाध्याय के निम्न पाँच प्रयोजनों की भी चर्चा की है
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1. उत्तराध्ययनसूत्र, 29/20-24.
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