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87 अर्धमागधी आगमसाहित्य में समाधिमरण
सकाममरण प्राप्त होता है।
उत्तराध्ययन यह स्पष्ट निर्देश देता है कि मेधावी साधक बालमरण व पण्डितमरण की तुलना करके सकाम मरण को स्वीकार करे और मरण काल में क्षमा और दया धर्म से युक्त हो, तथाभूत आत्मभाव में मरण करे। जब मरण काल उपस्थित हो तो जिस श्रद्धा से प्रव्रज्या स्वीकार की थी, उसी श्रद्धा व शान्त भाव से शरीर के भेद अर्थात् देहपात की प्रतिक्षा करे। मृत्यु का समय आने पर तीन प्रकार के एक से एक श्रेष्ठ समाधिमरणों से शरीर का परित्याग करे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तराध्ययन के इस पंचम अध्याय में भी उन्हीं तीनों प्रकार के समाधिमरणों का उल्लेख है जिसकी चर्चा हम आचारांग के सम्बन्ध में कर चुके हैं। फिर भी ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययन का यह विवरण समाधिमरण के हेतु प्रेरणा प्रदान करने की ही दृष्टि से है। दूसरे शब्दों में यह मात्र उपदेशात्मक विवरण है। इसमें किन परिस्थितियों में समाधिमरण ग्रहण किया जाय इसकी चर्चा नहीं है। मात्र यत्र-तत्र समाधिमरण के कुछ संकेत ही हैं। उत्तराध्ययन में समाधि मरण या संलेखना के काल आदि के सम्बन्ध में और उसकी प्रक्रिया के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह उसके 36वें अध्याय में इस प्रकार से वर्णित है --
अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस अनुक्रम से आत्मा की संलेखना -- विकारों को क्षीण करें। उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की होती है। मध्यम एक वर्ष की और जघन्य छह मास की है। प्रथम चार वर्षों में दुग्ध आदि विकृतियों का नि!हण -- त्याग करें, दूसरे चार वर्षों में विविध प्रकार का तप करें, फिर दो वर्षों तक एकान्तर तप (एक दिन उपवास और फिर एक दिन भोजन) करें। भोजन के दिन आचाम्ल करें। उसके बाद ग्यारहवें वर्ष में पहले छह महिनों तक कोई भी अतिविकृष्ट (तेला, चौला आदि) तप न करें। उसके बाद छह महीने तक विकृष्ट तप करे। इस पूरे वर्ष में परिमित (पारणो के दिन) आचाम्ल करे। बारहवें वर्ष में एक वर्ष तक कोटि सहित अर्थात निरन्तर, आचाम्ल करके फिर मुनि पक्ष या एक मास का आहार से तप अर्थात् अनशन करे। कादी, अभियोगी, किल्बिषिकी, मोही और आसुरी भावनाएँ दुर्गति देने वाली हैं। ये मृत्यु के समय में संयम की विराधना करती हैं। जो मरते समय मिथ्या-दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से युक्त हैं और हिंसक हैं, उन्हें बोधि बहुत दुर्लभ है। जो सम्यग् दर्शन में अनुरक्त हैं, निदान से रहित है, शुक्ल लेश्या में अवगाढ़- प्रविष्ट हैं, उन्हें बोधि सुलभ है। जो जिन वचन में अनुरक्त है, जिन वचनों का भाव पूर्वक आचरण करते हैं, वे निर्मल और रागादि से असंक्लिष्ट होकर परीत संसारी (परिमित संसार वाले) होते हैं। अन्य अंगआगम और समाधिमरण
आचारांग व उत्तराध्ययन के पश्चात् अर्धमागधी आगमों में स्थानांग और समवायांग में समाधिमरण से सम्बन्धित मात्र कुछ संकेत हैं। स्थानांगसूत्र (214) में दो-दो के वर्गों में विभाजित करते हुए श्रमण भगवान महावीर द्वारा अनुमोदित और अननुमोदित मरणों का उल्लेख
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