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प्रो. सागरमल जैन
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विरह-भक्ति के अनेक गीत लिखे हैं। उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं --
ऋषभ जिणेसर प्रीतम माहरो, और न घाहूँ कंत। रींइयों साहब सेज न परिहरे, भागे सादि अनन्त।। प्रीत सगाई जग मां सह करै, प्रीत सगाई न कोय। प्रीत सगाई निरूपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय।। प्रीतम प्रानपति बिना, प्रिया कैसे जीवै हो। प्रान-पवन विरहा-दशा, भुअंगनि पीवै हो।। सीतल पंखा कुमकुमा, चन्दन कहा लावै हो। अनल न विरहालन यह है, तन ताप बढ़ावै हो।। वेदन विरह अथाह है, पानी नव नेजा हो। कौन हबीब तबीब है, टारै करक करेजा हो।। गाल हथेली लगाइ कै, सुरसिंधु हमेली हो। अंसुवन नीर बहाय कै, सींचू कर बेली हो।। मिलापी आन मिलावो रे, मेरे अनुभव मीठडे मीत। चातिक पिउ पिउ करै रे, पीउ मिलावे न आन। जीव पीवन पीउं पीउं करै प्यारे, जीउ निउ आन अयान ।।
इस प्रकार जैन परम्परा में विरह व प्रेम को लेकर अनेक भक्ति गीतों की रचनाएं हुई हैं। उसमें शुद्ध चैतन्य आत्मा को पति तथा आत्मा के समता रूप स्वाभाविक दशा को पत्नी तथा आत्मा की ही वैभाविक दशा को सौत के रूप में चित्रित कर आध्यात्मिक प्रेम का अनूठा वर्णन किया गया है।
नारद भक्तिसूत्र में प्रेम स्वरूपा भक्ति के निम्न ग्यारह प्रकारों का उल्लेख हुआ है -- 1. गुणमहात्म्यासक्ति 2. स्पासक्ति 3. पूजासक्ति 4. स्मरणासक्ति 5. दास्यासक्ति 6. सख्यासक्ति 7. कान्तासक्ति 8. वात्सल्यासक्ति 9. आत्मनिवेदनासक्ति 10. तन्मयतासक्ति 11. परमविरहासक्ति
इनमें भी रूपासक्ति, स्मरणासक्ति, गुणमहात्म्यासक्ति और पूजासक्ति तो स्तवन, वंदन एवं पूजन के रूप में जैन परम्परा में भी पाई जाती है। शेष दास सख्य, कान्ता, वात्सल्य आदि को भी परवर्ती जैनाचार्यों ने अपनी परम्परागत दार्शनिक मान्यताओं के अनुरूप बनाकर प्रस्तुत किया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में भक्ति की अवधारणा स्तवन, वंदन, विनय, पूजा और सेवा इन सभी पक्षों को समाहित किये हुए है। सेवा के क्षेत्र में भक्ति के दो रूप रहे हैं -- एक तो स्वयं आराध्य आदि की प्रतिमा की सेवा करना, गीता के युग से ही संसार के सभी प्राणियों को प्रभु का प्रतिनिधि मानकर उनकी सेवा को भी भक्ति में स्थान दिया गया। जैन परम्परा में भी निशीथ चूर्णि (सातवीं शती) में यह प्रश्न उठा कि एक व्यक्ति जो प्रभु का नाम
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