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प्रो. सागरमल जैन
आपनो आतम भावजे, एक चेतननो धार रे ।
अवर सवि साथ संजोगथी, ए निज परिकर सार रे ।।
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प्रभु मुख थी इम सांभली, कहै आतमराम रे ।
थाहरै दरिसणे निस्तरयो, मुझ सीधा सवि काम रे ।। शांति जिन स्तवन
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वंदन
वंदन को जैन परम्परा में मुनि व गृहस्थ दोनों के षट्- आवश्यक कर्त्तव्यों में तीसरा स्थान है। पुण्य कर्म के विवेचन में भी नमस्कार को पुण्य कहा गया है। नमस्कार या वंदन तभी संभव होता है जब उसमें वंदनीय के प्रति पूज्य - बुद्धि या समादर भाव हो। इस प्रकार वंदन भी भक्ति का ही एक रूप है। जैनों के पवित्र नमस्कार मंत्र में पाँच पदों को वंदन किया गया है। वे पांच पद हैं १. अरहंत 2. सिद्ध 3. आचार्य 4. उपाध्याय और 5 साधु । यहां विशेष रूप से ज्ञातव्य यह है कि इस नमस्कार मंत्र में विशिष्ट गुणों के धारण करने वाले पदों को नमस्कार किया गया है, व्यक्ति को नहीं। इस प्रकार जैन परम्परा में व्यक्ति की उपासना के स्थान पर गुणों की उपासना को प्रधानता दी गयी । व्यक्ति को तो गुणों के आधार पर ही वंदनीय माना गया है। वंदन में मुख्य रूप से अरहंत, सिद्ध, आचार्य, गुरू एवं अपने से पद, योग्यता, दीक्षा आदि में ज्येष्ठ व्यक्ति को वंदनीय माना जाता है। वंदन का यह तत्त्व एक ओर व्यक्ति के अहंकार को विगलित करने का साधन है तो दूसरी ओर विनय - गुण का भी विकास करता है। यह सुस्पष्ट है कि अहंकार को सभी धर्म परम्पराओं में दुर्गुण माना गया है। जैन धर्म में विनय को धर्म का मूल या आधार कहा गया है।
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जैन परम्परा में इस प्रश्न पर भी गंभीरता से विचार किया गया है कि वंदनीय कौन है ? जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं जैन परम्परा में उपर्युक्त पाँच पद को धारण करने वाले व्यक्ति ही वंदनीय माने गये हैं । किन्तु साथ ही यह भी कहा गया है कि जिन व्यक्तियों में इन पदों के लिए वर्णित योग्यता का अभाव है वे वेश या पद स्थापित हो जाने मात्र से वंदनीय नहीं बन जाते । जैन परम्परा स्पष्ट रूप से शिथिलाचारियों के वंदन और संसर्ग का निषेध करती है क्योंकि इनके माध्यम से समाज में दुष्प्रवृत्तियों को न केवल बढ़ावा मिलता है अपितु सामाजिक जीवन में भी शिथिलाचार आने की सम्भावना रहती है। अतः वंदन किसको किया जाय और किसे न किया जाय, इस सम्बन्ध में विवेक को आवश्यक माना गया है। वंदन कैसे किया जाय, इस सम्बन्ध में भी जैन परम्परा में विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है, साथ ही उसमें सदोष वंदन के दोषों का चित्रण भी हुआ है। विस्तारभय से उसकी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है।
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जैनों के नमस्कार मंत्र में जो पाँच पद वंदनीय हैं उनमें तीर्थंकर या अर्हत के लिए केवल सिद्ध पद वंदनीय होता है। आचार्य के लिए अरहंत और सिद्ध ये दो पद वंदनीय हैं। इसी लिए प्राचीन अभिलेखों में सामान्यतया अरहंत व सिद्ध ऐसे दो पदों के नमस्कार का उल्लेख है । उपाध्याय के लिए अरहंत, सिद्ध एवं आचार्य -- ये तीन पद वंदनीय है। जबकि सामान्य मुनियों के लिए अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और अपने से दीक्षा में ज्येष्ठ मुनि इस प्रकार पाँचों
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