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१० । सद्धा परम दुल्लहा ही प्रायः सिद्ध हुई हैं । इस प्रकार की कट्टरता ने ही अन्ध श्रद्धा-मूलक उद्गार जैनों के प्रति निकलवाये हैं
"हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम् ।"
"पागल हाथी कुचलने या मारने के लिए अपनी ओर आ रहा हो, तब भी आश्रय के लिए जैन-मन्दिर या जैन उपाश्रय में मत जाओ।" ।
यह अन्धश्रद्धा और कट्टरता का नमूना है। ऐसा क्यों होता है, जबकि यह भी श्रद्धा का ही एक प्रकार है ? सच पूछे तो ऐसी साम्प्रदायिक कट्टरता पैदा करने वाली अन्धश्रद्धा और श्रद्धा में जमीन-आसमान का अन्तर है । जैसे-हीरा और कोयला एक ही तत्व के होने या एक ही खान में पैदा होने पर भी दोनों में महदन्तर है, वैसे ही अन्धश्रद्धा और श्रद्धा दोनों का मानव की मनोभूमि में जन्म होने पर भी दोनों की वृत्ति में बहुत अन्तर है। दोनों में इतनी-सी समानता अवश्य है कि दोनों में स्थिरता और दृढ़ता होती है। मगर अन्धश्रद्धा से होने वाली स्थिरता अनर्थकारी और मानसिक हिंसावर्द्धक है, जबकि श्रद्धा की स्थिरता हितकारी और मानवतावर्द्धक है।
यहाँ एक शंका यह होती है कि प्रायः बुद्धिजीवी लोग ऐसी तथाकथित अन्धश्रद्धा या कुश्रद्धा के शिकार तो कम होते हैं, किन्तु यह देखा जाता है कि बड़े-बड़े उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों, वकीलों, डाक्टरों, वैद्यों एवं बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों आदि में अपने मन्तव्य या अपनी मान्यता, अथवा अपनी थ्योरी के प्रति दृढ़ श्रद्धा, मजबूत आस्था, पक्का विश्वास अथवा निष्ठा होती है। मन्त्र-तन्त्र शास्त्रियों को अपने मन्त्र-तन्त्रों पर पूरा विश्वास होता है कि इस मंत्र या तन्त्र का अमुक निश्चित परिणाम आयगा । गणितशास्त्रियों को अपने गणित के फार्मूलों पर पक्का भरोसा होता है कि इस हिसाब का यही उतर आएगा। इसी प्रकार वैज्ञानिकों और रसायनशास्त्रियों को अपनी-अपनी थ्योरी पर पूरा विश्वास होता है कि अमुक रसायनों के मिश्रण से अमुक पदार्थ बनता है। एक सामान्य किसान को भी अपनी खेती पर पूर्ण विश्वास होता है कि मैंने जो गेहूँ के बीज बोये हैं, उनकी फसल गेहूँ के रूप में ही मिलेगी । अपनी-अपनी व्यावसायिक या वैयक्तिक श्रद्धा से युक्त होकर व्यक्ति निश्चिन्तता से जीता है, आश्वस्त हो जाता है। सामाजिक जीवन में भी व्यक्ति का किसी प्रभावशाली सत्ताधीश, धनाढ्य या ईमानदार नेता पर विश्वास हो जाता है कि मुझे अमुक व्यक्ति का पूरा सहारा है । अथवा जिन कार्यों को मनुष्य घबरा
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