Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ ऋषभ और महावीर बढ़ने लगीं। जनसंख्या के साथ-साथ समस्याएं बढ़ती हैं। यह एक ध्रुव सिद्धान्त हो सकता है-जितना परिग्रह सीमित होगा, उतना ही व्यक्ति पवित्र, सुखी और शान्त होगा। परिग्रह बढ़ेगा तो झझंट भी बढ़ेंगे, संघर्ष भी बढ़ेंगे, ईर्ष्या बढ़ेगी, सब कुछ बढ़ेगा। समाज को कभी भी एक रूप नहीं बनाया जा सकता। ऐसा होना संभव भी नहीं है। जहां समाज है, वहां ये सारी बातें आएंगी। समाज में लोभ भी बढ़ेगा और तृष्णा भी बढ़ेगी। जब आकांक्षा बढ़ती है, तृष्णा भी बढ़ जाती है, लोभ भी बढ़ जाता है, सब कुछ बढ़ जाता है। नेतृत्व का बीजारोपण तीसरे युग के अन्तिम क्षणों में आकांक्षा विस्तार पाने लगी। यौगलिक युग समाप्ति की ओर था। नए युग का सूत्रपात हो गया। उस युग के संधि-काल में, संक्रान्ति-काल में स्थितियां बदलनी शुरू हो गईं। जो भूमि खूब मिठास दे रही थी, वह मिठास कम होने लगा। आज की चीनी से भी ज्यादा मिठास उस समय की मिट्टी में थी। पदार्थों की शक्ति बहुत ज्यादा थी। वे लोग एक चने की दाल जितना खा लेते तो दो दिन तक खाने की जरूरत नहीं होती। उन्हें रोज खाने की जरूरत नहीं थी। तीसरे आरे-कालखंड में जैसे निरन्तर वर्षीतप चल रहा था। कोई भी रोज नहीं खाता । सब एक-एक दिन के अन्तराल से खाते। शक्तियां भी कम होने लगीं। भूमि का मिठास भी कम होने लगा । काल की स्निग्धता भी कम होने लगी। मस्तिष्क में रुखापान आने लगा और साथ-साथ में अपराध भी जन्म लेने लगे। कल्पवृक्ष से खाने की पूर्ति होती थी, वे भी कम देने लगे । संतति बढ़ने लगी, पैदावार कम होने लगी। छीना-झपटी और चोरियां शुरू हो गईं। लोग संत्रस्त हो उठे। उन्होंने सोचा-ऐसे तो काम नहीं चलेगा। कुछ लोगों ने मिलकर अपना नेता चुनना शुरू किया। कुल बने, कुलों के मुखिया बने । कुलकर की व्यवस्था का यह आदि बिन्दु है। समाज व्यवस्था का काम एक मुखिया को सौंप दिया गया। छोटे-छोटे कुल बनाए गए । कुलकरों ने अपनी व्यवस्था को दृढ़ता से लागू किया, छीना-झपटी को रोकना शुरू किया, अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया। उन्होंने व्यवस्था दी-अमक पदार्थ या क्षेत्र हमारे अधिकार में है, यहां दूसरा कोई आ नहीं सकेगा और यहां से कुछ भी नहीं ले सकेगा। स्वामित्व का बीजारोपण हो गया। व्यक्तिगत स्वामित्व, कुल, कुल की व्यवस्था—इन सबका जन्म हो गया। अनेक कुलकर बने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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