Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 33
________________ ऋषभ और समाज व्यवस्था कर्तव्य और धर्म-इन दोनों का विवेक स्पष्ट नहीं होता है तो समाज समस्याओं से घिर जाता है । यह आज की बड़ी समस्या है। आज कर्त्तव्य और धर्म का विवेक स्पष्ट नहीं लगता। आचार्य भिक्षु की सबसे बड़ी देन है—कर्त्तव्य और धर्म के विवेक का पुन:जागरण, कर्त्तव्य और धर्म के विवेक की पुन:स्थापना । उन्होंने बहुत स्पष्टता से इस तथ्य का प्रतिपादन किया-कर्त्तव्य अलग होता है और धर्म अलग होता भोजन की समस्या ___ऋषभ राजा बने । राजा का अपना कर्तव्य होता है । उन्होंने अपने दायित्व का निश्चय किया। उन्होंने सबसे पहले सोचा–प्रजा के प्रति मेरा दायित्व क्या है ? मैं प्रजा के लिए क्या करूं? उन्होंने प्रजा की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। सबसे पहली आवश्यकता होती है भोजन की। भोजन की पूर्ति समस्या का रूप ले रही थी। कल्पवृक्षों से जो कुछ मिलता था, उससे जीवन का काम चलना कठिन हो गया। भगवान् ऋषभ ने इस समस्या को सुलझाने का संकल्प किया। उन्होंने लोगों को खेती करना सिखाया। लोगों ने खेती करना प्रारंभ कर दिया। अनाज पैदा होने लगा। खाद्य पदार्थों की समस्या सुलझने लगी। लोगों ने पहली बार अनाज खाया। अनाज को पकाने का न साधन उपलब्ध था और न ही उसके पकाने का बोध था। लोग कच्चा अनाज पचा नहीं सके। समस्या पैदा हो गई। अनाज बहुत शक्तिशाली होता है । जिस भूमि पर पहली बार अन्न उपजा, वह कितना शक्तिशाली रहा होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। लोग ऋषभ के पास आए। उन्होंने निवेदन किया-महाराज ! हमने अनाज खाया किन्तु अजीर्ण हो गया। अनाज पचता नहीं है। हम क्या करें? ऋषभ ने कहा-तुम अनाज को हाथ से मलकर खाओ, उसके छिलके उतार कर खाओ, उसे जल से धोकर खाओ। लोगों ने वैसा किया फिर भी वे अनाज को पचा नहीं पाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122