Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 79
________________ ऋषभ और महावीर श्रेणिक का आश्चर्य महावीर के समवसरण में एक व्यक्ति ने राजा श्रेणिक से कहा-तुम जीते रहो और उसी व्यक्ति ने भगवान महावीर से कहा- तुम मर जाओ ।राजा श्रेणिक ने भगवान् से पूछा- भन्ते ! इस अनर्गल प्रलाप का अर्थ क्या है ? महावीर ने कहा-उसने जो कहा है, वह बिल्कुल सही है। भंते ! कैसे? तुम्हें जीना प्रिय लगता है, अच्छा लगता है पर जीने के पीछे क्या छिपा हुआ है, उसे तुम नहीं समझ पा रहे हो। तुमने जीवन को जिया है, पर सकाम जीवन नहीं जिया है, समाधिमरण के अनुकूल जीवन नहीं जिया है। इसलिए यह कह रहा है तुम्हारा जीना अच्छा है, मरना अच्छा नहीं है। क्योंकि समाधिमरण की तैयारी तुम्हारे जीवन में नहीं है। 'मर जाओ !' इसके पीछे क्या रहस्य छिपा है ? उसके यह कहने का रहस्य था- तुम क्यों कारा में बंदी बने बैठे हो । निर्वाण तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। जीने से अधिक मरने में सार्थकता है। श्रेणिक को बात समझ में आ गई। शब्द के पीछे छिपा रहस्य अभिव्यक्त हो गया। मृत्यु महोत्सव है जीवन और मरण को तोड़कर नहीं देखा जा सकता। समाधिमरण के साथ समाधिपूर्ण जीवन को भी देखना होगा । समाधिपूर्ण जीवन के साथ समाधिमरण की ओर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा। बहुत लोग सोचते हैं—अभी क्या अवस्था है ? जब अवस्था ढलेगी, समाधिमरण की तैयारी करेंगे। यह बात चिन्तनीय है । वस्तुत: मृत्यु की तैयारी क्रमश: करनी होती है। इसमें सबसे बड़ी बाधा है—मूर्छ । एक कामना जीवन में निरन्तर बनी रहती है और वह व्यक्ति को समाधिमरण की प्रक्रिया की ओर प्रस्थिन नहीं होने देती । हमने अनेक बार इस उपमा को सुना है—मरने का मतलब है पुराने कपड़े उतार देना और नए कपड़े को पहन लेना। एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है 'मृत्यु महोत्सव' । उसमें कहा गया है—मरना एक महोत्सव है, उससे डरो मत । मृत्यु के संदर्भ में बहुत सुन्दर चित्रण उस ग्रन्थ में उपलब्ध होता है जीर्णं देहादिकं सर्वं, नूतनं जायते यतः । स मृत्यु किं न मोदाय, सतां सातोत्थितियथा ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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