Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 86
________________ वर्धमान : जागरूकचर्या प्रश्न मनुष्य के स्वाभाव का अमेरिकी दार्शनिक जोनेथन एडवर्ड्स ने एक प्रश्न उठाया—मनुष्य का स्वभाव क्या है ? पाप उसका स्वभाव है या कोई दूसरा तत्त्व उसका स्वभाव है ? तर्क के द्वारा, परीक्षा और जांच के द्वारा, वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे--मनुष्य स्वभाव से कलुषता को अपनाए हुए है। उसका वह स्वभाव क्यों बना? उसका वह स्वभाव कहां से आया? उसका कारण ईश्वर नहीं है क्योंकि मनुष्य स्वतंत्र है । ईसाई धर्म में माना गया है-एक आदमी का पाप उसकी सारी संतति को भुगतना पड़ता है। इसका अर्थ है-पाप की जड़ में आदमी है । क्या यह सही है ? यह प्रश्न अनेक दार्शनिकों के मन में उठता रहा है । मनुष्य सहज ही पाप की ओर जाता है। वह धर्म की ओर नहीं जाता । धर्म के लिए प्रयत्न करना होता है । पाप के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता । प्रमाद के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। अप्रमाद और जागरूकता के लिए प्रयत्न करना होता है। मनुष्य की प्रकृति क्या है ? उसका स्वभाव क्या है ? इसे समझना आसान नहीं है। यह एक बहुत बड़ी दार्शनिक गुत्थी रही है। मनुष्य का स्वभाव प्रमाद है या अप्रमाद? धर्म है या पाप? आदमी बुराई की ओर सहजता से चला जाता है। अच्छाई के लिए बहुत सीखना पड़ता है बहुत तपना पड़ता है। पहाड़ पर चढ़ने के लिए काफी प्रयत्न करना पड़ता है किन्तु उससे नीचे व्यक्ति सीधा लुढ़क जाता है। आत्मा का स्वभाव हम महावीर के दर्शन के संदर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें। महावीर ने कहा- सोवहिए हु लुप्पती बाले–जो सोपधिक है वह पाप की ओर जाता है जिसमें उपधि की मूर्छा है, जो उपाधि से जुड़ा हुआ है, वह पाप की ओर जाता है । यह महावीर की जागरूक चर्या का मुख्य सूत्र रहा है। आत्मा का स्वभाव पाप की ओर जाना नहीं है। आत्मा पाप नहीं है और पाप की ओर जाना उसका स्वभाव नहीं है। किन्तु आत्मा केवल आत्मा नहीं है, वह सविशेषण है। उपाधि का एक अर्थ है—विशेषण, उपाधि सहित होना । उपाधि का एक अर्थ कष्ट है। वह पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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