Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 101
________________ १०० ऋषभ और महावीर तुम सब यहीं रुक जाओ। मेरे साथ कोई नहीं जाएगा। त्रिपृष्ठ ने सब सैनिकों को वहीं छोड़ दिया । वे सिंह का सामना करने के लिए अकेले ही चल पड़े, नि:शस्त्र चल पड़े। निर्जन और भयानक वन में उनके साथ कोई सरक्षा व्यवस्था नहीं थी। यह था उनका पराक्रम । महत्त्वपूर्ण प्रश्न ___महावीर असभ्य लोगों के बीच एक विशेष उद्देश्य और लक्ष्य के साथ गए थे। उनका उद्देश्य था--अपनी साधना के द्वारा दूसरों को भी प्रतिबोध मिले और ऐसी कोई चेतना जागे जिससे अहिंसा, मैत्री और करुणा का बीज उग जाए। वहां जाने के बाद जो घटित हुआ, वह अज्ञात नहीं है। कितने कष्ट आए, कितने घोर परीषह आए, कितनी विपत्तियां आईं, किन्तु महावीर अविचल बने रहे । प्रश्न होता है-एक आदमी इतने कष्टों को कैसे सह सकता है? क्या कोई आदमी इतने कष्ट सह सकता है ? ___आज का युग एक विचित्र युग है। आज जितने विषयों पर वैज्ञानिक खोज कर रहें हैं, उनकी गणना करना कठिन है। उनमें एक विषय है—आदमी पीड़ा को कैसे सहन करता है? इस पर बड़े-बड़े अनुसंधान चल रहे हैं, पीड़ानाशक दवाइयां चल रही हैं और भी ऐसी बहुत सारी दवाइयां खोजी जा रही हैं, जिससे दर्द का आभास ही न हो। इनकी खोज के कारण ही बड़े-बड़े ऑपरेशन सफल हो रहे हैं। डॉक्टर ऑपरेशन में शरीर के अवयवों को काट देते हैं, अलग कर देते हैं, उन्हें पुन: जोड़ देते हैं किन्तु रोगों को कुछ भी पता नहीं चलता। वर्तमान प्रयत्न हमारे शरीर में सूचना केन्द्र है-मस्तिष्क । शरीर के किसी भी अवयव में दर्द होता है या इन्जेक्शन दिया जाता है तो उसकी सीधी सूचना केन्द्र को जानकारी मिलती है और दर्द का अनुभव होता है। उस पर नियन्त्रण कर लिया जाए तो दर्द की अनुभूति समाप्त हो जाए। पैर में चोट लगती है पर उस चोट का दर्द पैर में नहीं होता । चोट लगने पर सबसे पहले मस्तिष्क में संदेश पहुंचेगा । विद्युत् रासायनिक प्रक्रिया उस संदेश को ले जाती है और उसके सूचना केन्द्र पर पहुंचने के बाद दर्द का अनुभव होता है। आज ऐसे उपाय खोजे जा रहे हैं कि वह संदेश दर्द के स्थान पर पहुंच ही न पाए। हमारी रीढ़ की हड्डी के भीतर संदेश प्रणालियां हैं । ऐसा उपाय किया जाए, जिससे वह संदेश वहां तक न पहंच पाए। यदि संदेश पहंच जाए तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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