Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 38
________________ ऋषभ और समाज व्यवस्था ३७ हित नहीं होता । वास्तव में राजा वही होता है जिसका चिंतन प्रजाहित में हो । प्रजा के हित में ही राजा का हित निहित होता है। यदि लोकतंत्र के संदर्भ में देखें तो शासक का अपना हित नहीं होना चाहिए। जहां शासक का अपना हित होता है वहां शासनतंत्र ही गड़बड़ा जाता है। ऋषभ के सामने भी यह अहं प्रश्न था। ऋषभ आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने प्रजाहित का अतिक्रमण नहीं किया। उन्होंने सारी शक्ति प्रजाहित में लगा दी। जनता की प्राथमिक आवश्यकताओं के साधन सुलभ हो गए । असि, मषि, कृषि का विकास होने लगा। जनता का खान-पान, रहन-सहन, व्यापार व्यवसाय व्यवस्थित बन गया। खेती को जनता तक पहुंचाने के लिए विनिमय का साधन व्यापार हो गया। लोग व्यवसायी बन गए। जब प्रगति बढ़ती है तब सुरक्षा की भी आवश्यकता होती है । सुरक्षा के प्रश्न से सुरक्षा तंत्र का निर्माण हो गया। तीन कार्य संपादित हो गए-कृषि, वाणिज्य और सुरक्षा। चौथा कार्य था— शासन व्यवस्था। ऋषभ ने शासन की व्यवस्था को भी एक रूप प्रदान कर दिया। शिल्पकला और व्यवसाय का प्रशिक्षण ऋषभ ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को बहत्तर कलाएं सिखलाईं। कनिष्ठ पुत्र बाहुबली को प्राणी की लक्षण विद्या का उपदेश दिया। बड़ी पुत्र ब्राह्मी को अठारह लिपियों और सुन्दरी को गणित का अध्ययन कराया। धनुर्वेद, अर्थशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, क्रीड़ा-विधि आदि-आदि विद्याओं का प्रवर्तन कर लोगों को सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत बना दिया। ___अग्नि की उत्पत्ति ने विकास का स्रोत खोल दिया। पात्र, औजार, वस्त्र, चित्र आदि शिल्पों का जन्म हुआ। अन्नपाक के लिए पात्र-निर्माण आवश्यक हुआ। कृषि गृह-निर्माण आदि के लिए औजार आवश्यक थे, इसलिए लोहकार शिल्प का आरम्भ हुआ। सामाजिक जीवन ने वस्त्र-शिल्प और गृह-शिल्प को जन्म दिया। ___नख, केश आदि को काटने के लिए नापित-शिल्प (क्षौर-कर्म) का प्रवर्तन हुआ। इन पांचों शिल्पों का प्रवर्तन अग्नि की उत्पत्ति के बाद हुआ। पदार्थों के विकास के साथ-साथ उनके विनिमय की आवश्यकता अनुभूत हुई। उस समय ऋषभ ने व्यवसाय का प्रशिक्षण दिया। कृषिकार, व्यापारी और रक्षक-वर्ग भी अग्नि की उत्पत्ति के बाद बने । कहा जा सकता है-अग्नि ने कृषि के उपकरण, आयात-निर्यात के साधन और अस्त्र-शस्त्रो को जन्म दे मानव के भाग्य को बदल दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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