Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ ऋषभ और महावीर और समाज का युग प्रारम्भ होता है। समाज के उस आदिम युग में भगवान् ऋषभ ने सबसे पहले जैन धर्म का प्रवर्तन किया। केवल जैन धर्म का ही नहीं, समग्र श्रमण धर्म का प्रवर्तन भगवान् ऋषभ ने किया। जो परम्परा भगवान् ऋषभ द्वारा स्थापित की गई, उस परम्परा का नाम है श्रमण परम्परा । उस परम्परा में अनेक सम्प्रदाय बने, सांख्य संप्रदाय, बौद्ध संप्रदाय, आजीवक संप्रदाय, आदि-आदि न जाने कितने संप्रदाय विकसित हुए । उनकी संख्या चालीस तक चली गई । उससे अधिक संख्या भी हो सकती है। जितने अवैदिक संप्रदाय थे वे सारे श्रमण परम्परा में थे। उन सारे संप्रदायों की परम्पराओं का प्रवर्तन भगवान् ऋषभ से हुआ है। इतिहास फूलों का राजा ऋषभ एक दिन उद्यान में गए। वहां पुष्प क्रीड़ा हो रही थी, फूलों से खेला जा रहा था। फूलों का इतिहास बहुत पुराना है। आज के वैज्ञानिक इस तथ्य तक पहुंच गए हैं—लगभग चौदह करोड़ वर्ष पूर्व तक यहां फूल खिलते थे। हो सकता है-वैज्ञानिक एक दिन ऋषभ के युग तक पहुंच जाएं। ऋषभ की पुष्पवाटिका अत्यन्त मनोहर थी। बसंत का मौसम था । वृक्ष फलों से लदे हुए थे। लताओं पर फूल खिले हुए थे। विविध प्रकार की क्रीड़ाएं हो रही थीं। ऋषभ का ध्यान उन पर केन्द्रित हुआ। कभी-कभी आदमी गहराई में चला जाता है। ऋषभ को वह अद्भुत क्रीड़ा परिचित-सी लगी। उस पर ध्यान गहराया, ध्यान देते-देते ऋषभ अतीत में चले गए। सारा अतीत उनके सामने साक्षात् प्रस्तुत हो गया। उन्होंने देखा-मैंने यह दृश्य स्वर्ग में देखा था, अमुक स्थान पर देखा था। आत्म-मंथन जब व्यक्ति अपने भीतर में देखना शुरू करता है और अपने जीवन की विविधताओं पर ध्यान केन्द्रित करता है तब वह बदल जाता है । यह रूपान्तरण का बिन्दु है। ऋषभ ने अपना अतीत देखा और उसे देखने के बाद वे विचय में चले गए। वे विचय में गहरे उतरे । उन्होंने गहराई में जाकर अनुभव किया—आज जो फूल खिल रहा है, वह कल मुरझा जाएगा। आज यह बहुत सुन्दर लग रहा है, इसका लाल रंग मन को हर रहा है। कल यही पुष्प कचरा बन जाएगा। यहीं पर कचरे का ढेर लगा हुआ है । जो फूल टूटे हुए पड़े हैं उनका कचरा बन गया है। ये फूल भी टूटकर इसका एक हिस्सा बन जाएंगे। यह क्या? यह कैसा जीवन? ऋषभ इस आत्मचिन्तन में डूबते चले गए, आत्म-मंथन में लीन बन गए। पदार्थ की सारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122