Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 69
________________ ऋषभ और महावीर नहीं है। निर्वाण में विलीन होने का प्रश्न नहीं है। निर्वाण है अपने समग्र अस्तित्व को अभिव्यक्त कर लेना, प्रकट कर लेना, आत्मा को परमात्मा बना लेना। भक्त से भगवान् बनने का दर्शन __आचार्य मानतुंग के भक्तामर स्तोत्र में निर्वाण की यही परिभाषा प्राप्त है। उन्होंने लिखा---प्रभो ! जो आपकी भक्ति करता है वह आपके समान बन जाता है, इसमें आश्चर्य क्या है। जो भगवान् अपने भक्त को अपने समान न बनाए, यह आश्चर्य की बात हो सकती है। उस आराध्य और परमात्मा से हमें क्या, जो भक्त को अपने समान न बनाए। नात्यद्भुत्तं भुवनभूषण भूतनाथ, भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः । तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा, भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥ भगवान् महावीर को यह बात कभी मान्य नहीं रही-भगवान् सदा भगवान् बना रहे और भक्त सदा भक्त ही बना रहे । महावीर ने निर्वाण का जो सिद्धान्त दिया, उसका अर्थ है-भक्त भगवान् बन सकता है ।आज प्रात:काल अमेरिकी छात्रों से चर्चा चल रही थी। आचार्यवर ने चर्चा के प्रसंग में कहा-हम भक्त को सदा भक्त बने रहने देना नहीं चाहते । हम नहीं चाहते-एक हाथ सदा देने वाला बना रहे और एक हाथ सदा लेने वाला बना रहे। हम चाहते हैं-दोनों हाथ ऊपर उठ जाएं, भक्त भगवान् बन जाए । भक्त से भगवान् बनाने वाले सिद्धांत का नाम है—निर्वाणवाद । ईश्वर का पता ___ आत्मवाद और निर्वाणवाद-दोनों एक हैं, दो नहीं हैं । निर्वाणवाद का मतलब है आत्मा को जानना, आत्मा को देखना और आत्मा में रहना। एक आचार्य ने लिखा-आत्मा को जानने का मतलब है सम्यग् ज्ञान । आत्मा को देखने का मतलब है सम्यग् दर्शन। आत्मा में रमण करने का अर्थ है सम्यग् चारित्र और यही योग स्वामी विवेकानन्द से एक व्यक्ति ने प्रार्थना की-आप मुझे ईश्वर से मिला दें। विवेकानन्द बोले-ठीक है ! मैं तुम्हारी प्रार्थना उन तक पहुंचा दूंगा। तुम अपना पता मुझे दे दो। उस व्यक्ति ने अपना पता (एड्रेस) लिख कर दे दिया। विवेकानन्द ने पूछा-क्या यह तुम्हारा अपना पता है? वह व्यक्ति इस प्रश्न से सकपका गया । उसने कहा-महाराज ! मुझे उसका पता नहीं है। विवेकानन्द बोले-जिस व्यक्ति को अपने आपका पता नहीं होता उससे ईश्वर कभी मिलता ही नहीं है। तुम पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122