Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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जागो! क्यों नहीं जाग रहे हो? स्वतन्त्रता का इतिहास जितना पुराना है, परंतत्रता का इतिहास भी उतना ही पुराना है। दोनों बहुत प्राचीन हैं। अगर प्राचीन होने से कोई बात अच्छी होती तो परतंत्रता भी बहुत अच्छी हो जाती। जब समाज ने करवट ली, अंगड़ाई ली और वह थोड़ा आगे बढ़ा तो उसके दोनों पहलू-स्वतंत्रता और परतंत्रता उजागर हो गए।
एक दिन भरत का राज्याभिषेक महोत्सव मनाया जा रहा था। विजय का महोत्सव था। उसमें बहुत से राजा उपस्थित थे। भरत ने दृष्टि दौड़ाई, चारों ओर देखा-सब राजा प्रस्तुत हैं किन्तु भाई एक भी नहीं है। बड़ी विचित्र स्थिति बन गई । अट्ठानवें सगे भाई और बाहुबलि, जो दूसरी माता का पुत्र है । निन्यानवें भाइयों में से एक भी भाई उपस्थित नहीं है। केवल पराए ही पराए। भरत को अटपटा लगा। सब कुर्सियां खाली पड़ी थीं। भरत का मन आहत हुआ। यह क्या? एक भी भाई नहीं ? भरत के राज्याभिषेक का उत्सव मनाया जा रहा था किन्तु उसे यह उत्सव फीका-फीका लग रहा था। इस उत्सव की ओर उसका ध्यान ही नहीं जा रहा था। उत्सव का समय भी मुश्किल से बीता होगा। भरत का संदेश
उत्सव का समय पूरा हुआ। भरत ने अपने मंत्री को बुलाया, अट्ठानवें दूतों को बुलाया, उन्हें संदेश दिया-जाओ ! जहां-जहां मेरे भाई हैं उन सबको यह संदेश बता दो। दूत सब राजधानियों में पहुंचे, सब भाइयों को भरत का संदेश दिया। भाइयों ने भरत का संदेश देखा । संदेश में लिखा था-तुम आओ और मेरी अधीनता स्वीकार करो, यहां आकर सेवा करो। अगर तुम राज्य चाहते हो तो ऐसा करो। सबने भरत के संदेश को पढ़कर सोचा-अरे ! यह क्या बात है? पिता ने सबको विभाग करके राज्य दिया है-यह तुम्हारा राज्य है और यह तुम्हारा राज्य। भरत कौन होता है उसे मांगने वाला और हमारे से सेवा लेने वाला? वह कौन है हमें अधीन बनाने वाला? सबके मन में एक विचार पैदा हो गया, एक प्रश्न पैदा हो
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