Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 58
________________ भरत और बाहुबली मनुष्य के जीवन और उसके व्यक्तित्व की एक शब्द में परिभाषा की जाए तो वह है भावों का जीवन । मनुष्य का जीवन भावात्मक है। कहा जाता है—व्यक्ति को धन प्यारा होता है ! पत्नी, भाई और पिता प्यारा होता है, किन्तु यह दो नम्बर का सत्य है । एक नम्बर का सत्य है-आदमी को अपना भाव सबसे ज्यादा प्रिय है। वह भाव से जीता है। किसी व्यक्ति को अहंकार ज्यादा प्यारा है। वह अपने अहंकार के लिए पिता को छोड़ देता है, पुत्र और पत्नी को छोड़ देता है। किसी व्यक्ति को लोभ बहुत प्यारा है। किसी को क्रोध प्रिय है। प्रिय है अपना भाव । प्रत्येक आदमी अपने भावों के साथ जीता है। यदि मनुष्य को भावों का पुतला कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिसका जैसा भाव, उसका वैसा जीवन-यह एक व्याप्ति बनाई जा सकती है। समस्या चक्र प्रवेश की हम इसे एक घटना के सन्दर्भ में देखें भरत के मन में अधिकार का भाव जागा। अधिकार या लोभ की भावना ने उसके मन में साम्राज्य-विस्तार की आकांक्षा को जन्म दिया। बाहुबली के मन में अहंकार का भाव प्रबल बना । उसने भाई की अधीनता के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। भरत और बाहुबली का युद्ध इतिहास की एक महान् घटना है। . सेनापति सुषेण चक्रवर्ती भरत की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने निवेदन किया-महाराज ! चक्र आयुधशाला में प्रवेश नहीं कर रहा है। चक्रवर्ती भरत ने कहा—मैंने सबको जीत लिया, अब कोई शेष नहीं है। फिर चक्र भीतर क्यों नहीं जा रहा है ? हमने राज्याभिषेक का उत्सव मना लिया फिर भी चक्र प्रविष्ट क्यों नहीं हो रहा है? महाराज ! नहीं जा रहा है। बोलो ! कौन बचा है? सषेण मौन हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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