Book Title: Rushabh aur Mahavira
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 23
________________ २२ ऋषभ और महावीर विप्र बोला – जानुदध्नं नराधिप - नदी में घुटने तक पानी है । भोज ने दूसरा प्रश्न किया- 'ईदृशी किमवस्था ते ? ' - तुम विद्वान ब्राह्मण हो तुम्हारी यह अवस्था कैसे ? ब्राह्मण ने कहा - ' न हि सर्वे भवादृशा: । - सब आप जैसे नहीं हैं, जो इस अवस्था को सुधार दें । राजा भोज इस उत्तर से प्रसन्न हो उठा। उसने उसकी अवस्था को सुधार दिया, उसे गरीब से संपन्न बना दिया । कर्म का युग सब व्यक्ति ऋषभ के समान नहीं होते, जो विश्व की अवस्था को सुधारे । ऋषभ ऋषभ थे । ऋषभ का अवतरण नई दिशा के उद्घाटन के लिए हुआ था । उन्होंने विश्व की सारी व्यवस्थाओं को सुधारना शुरू किया, युग को नया मोड़ दिया। जो युग चल रहा था, वह आदिवासियों का युग था । बहुत सीमित प्रवृत्तियां थीं, बहुत सीमित खान-पान था । व्यक्ति प्रतिदिन खाना नहीं खाता था। प्रश्न उभरता हैयोगलिक मनुष्य इतना लंबा समय कैसे बिताते थे । न कोई ध्यान करता था, न धर्म करता था, न निंदा करता था, न कोई बातचीत का विषय था। फिर इतना लंबा समय कैसे बीतता ? समाधान दिया गया— उनका जीवन सहज - शांत था । वे अपने आपमे इतने लीन थे कि जैसे अपने भीतर से ही आनंद बरसता था। उनका समय अनायास कट जाता । आनंद का प्रवाह काल की अनुभूति को बदल देता है । उस समय कर्म भूमि अकर्म भूमि जैसी बनी हुई थी। जैन साहित्य में भूमि को दो भागों में बांटा गया— कर्म भूमि और अकर्म भूमि । अकर्म भूमि में कुछ करना नहीं होता । न खेती करनी होती है और न कुछ और कार्य करना होता है । वह ध्यान में होने वाली अकर्म की स्थिति भी नहीं है । उनके सहज अकर्म होता है । इसलिए उस भूमि में रहने वाले अकर्म भूमि के जीव कहलाते हैं । ऋषभ ने एक मोड़ दिया, कर्म को सार्थक बनाया। कर्म का युग शुरू हो गया । ऋषभ के अवतरण का अर्थ ऋषभ के अवतरण का अर्थ है— प्रवृत्ति का अवतरण । ऋषभ के अवतरण का अर्थ है - निवृत्ति का अवतरण । कोरा प्रवृत्ति का अवतरण होता तो ऋषभ का जीवन अधूरा बन जाता। कोरी निवृत्ति का अवतरण होता तो शायद काम नहीं चलता । ऋषभ के अवतरण का अर्थ है-समाज-व्यवस्था का अवतरण । ऋषभ के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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