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सागरोंपर्यन्त सुख भोगकर मनुष्यपर्याय धारण करके मोक्ष के अविनाशी परम सौख्य को प्राप्त कर सकता है। पूजा का महात्म्य बताते हुए 'धर्म संग्रह' ग्रंथ में लिखा है
मानिनो मानविनिर्मुक्ता, मोहिनो मोहवर्जिताः। रोगिणो निरुजो जाता, वैरिणो मित्रतांश्रिताः ।।43 ।।
चक्षुष्मन्तोऽभवन्नंधा, बधिराः श्रुतिधारणः । मूकाः पटुत्वमापन्नाः, पंगवः शीघ्रगामिनः ।।44 ।। निर्धनाः सधना लोके, जड़ा पाण्डित्यमाश्रिताः। इत्यन्येऽपि च सम्पन्ना, मानस्तंभादिदर्शनात् ।।45 ।। भगवान् के समवसरण के मानस्तंभ के दर्शन मात्र से अभिमानियों के मान दूर हो गये, जो मोह में फँसे थे उनका मोह दूर हो गया, वैरी भी मित्र बन गये, अन्धों को दिखाई देने लगा, बधिर पुरुषों को शब्द सुनाई पड़ने लगे, जो गूंगे थे वे भी बोलने लगे, जो पंगु थे वे भी शीघ्रगामी हो गये अर्थात् परों से चलने लगे, निर्धन धनवान् हो गये और मूर्ख भी पंडित हो गये। तात्पर्य यह है कि भगवान् के समवसरण के मानस्तंभ के दर्शन मात्र से जब असंभव कार्य भी संभव हो जाते हैं और पुण्य लाभ होता है, तो भगवान् के दर्शन करने से तथा पूजन करने से कितना पुण्यास्रव होगा तथा पाप का नाश होगा, स्वयं विचार कर लेना चाहिए।
__ आचार्यों ने लिखा है- जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति भवदुःख का नाश करने वाली तथा पापों को नष्ट करने वाली है।
"अनन्तानन्त संसार संतति छेद कारणम्,
जिनराज पदाम्भोज स्मरणं शरणं मम्।" अनन्तान्त संसार की परम्परा का छेद करने वाले जिनेन्द्रदेव हैं, उनके चरणकमल ही एकमात्र मेरे लिये शरण हैं। जो अपने आपको प्रभु के चरणों में समर्पित कर देता है, उसके संकट ऐसे ही छंट जाते हैं, जैसे सूर्य के उदित होने पर अंधकार फुट जाता है। सेठ धनंजय प्रभु की आराधना में तल्लीन थे, उनके पुत्र को सर्प ने काट लिया, पर वे पुत्र मोह से पृथक् प्रभु की भक्ति में ही
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