________________
देखनेवाले आत्मानुभव से शून्य जीवो! तुम परपदार्थों में रागी हुये अनादिकालीन संसार से पद-पद पर सदा उन्मत्ते बने जिस चतुर्गति संसारी पर्याय में लीन हो, वह तुम्हारा स्थान नहीं है, नहीं है। अतः जागो-जागो। यहाँ आओ। तुम्हारा पद यह है, यह है। जहाँ चैतन्य धातु द्रव्य-भावरूप परमशुद्ध अपने चैतन्यरस से भरी हुई स्थायीपने को प्राप्त होती है।
जैसे कोई प्राणी मदिरा पीकर अपना पद व अपना स्थान भूलकर सड़क पर लुढ़क कर उन्मत्त हुआ बकवास करता था। उसे अन्य समझदार पुरुष ने बुलाकर उठाया, कहा-'हे भ्राता! तुम मदिरा के नशे में सुध-बुध से रहित होकर इस खराब स्थान में पड़े हो, तुम्हारा तो पद ऐसा नहीं है। तुम बड़े उच्चकुलीन समझदार व्यक्ति हो, कहाँ पड़े हो? मोह को छोड़कर जागो, अपने स्वरूप को याद करो। तुम्हारा घर उन्नत महल है। उठो, वहाँ देखो। वह है तुम्हारा घर । वहाँ सदा आराम से रहो।' जैसे वह व्यक्ति अपनी सुध-बुध ठीक कर उस निम्न स्थान का परित्याग कर अपने घर जाता है, उसी प्रकार आचार्य अनादिकाल से मोहमदिरा का पान कर अपने निज स्वरूप को भूले हुए संसारी प्रणियों को संबोधित करते हैं, कि-पंचेन्द्रिय विषय तो परपदार्थ हैं, उनमें मत्त होकर तुम अपना अहित करते हुए दुःखी हो रहे हो। इस मोह के नशे को त्याग कर जागो। देखो, कहाँ हो? तुम्हारा यथार्थ स्वरूप क्या है? कैसा सुन्दर है? उसे प्राप्त करो, तब सदा सुखी रहोगे। जो सम्पूर्ण विपत्तियों से रहित है, ऐसा उस शुद्ध चैतन्य स्वरूप मात्र अपने पद का आस्वादन करना चाहिए। वह ऐसा श्रेष्ठतम पद है कि जिसके सामने सांसारिक सम्पूर्ण कर्मोपाधिजन्य पद स्वयं में अपद ही हैं। मेरे योग्य स्थान नहीं हैं, ऐसा स्वयं भासित होने लगता है।
___ आचार्य कहते हैं कि हे आत्मन्! तू पर की ओर दृष्टि करके दीन हुआ ललचाता फिरता है। तूने कभी अपनी निजनिधि का दर्शन नहीं किया। तेरे भीतर तेरी ज्ञानकला ऐसी अपूर्व निधि है, जो तेरे सम्पूर्ण प्रयोजनों को साध नेवाली है। वही तेरे लिये चिन्तामणी रत्न के समान है। अपनी निजनिधि को प्राप्त करने के लिये संयम-तप को धारण कर कर्मों की निर्जरा करना अनिवार्य
है।
0 257_n