Book Title: Ratnatraya Part 01
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

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Page 763
________________ पर्यन्त भवभ्रमण कराता है। मोहकर्म जब आता है, तो कई सद्गुणों को भस्म कर देता है। इसके ताप से समस्त संसार पीड़ित है, किन्तु फिर भी इसकी मोहनी शक्ति से जीव अपना पिण्ड नहीं छुड़ा पाते। जिनवाणी का स्वाध्याय एक चाबी की तरह है, जिससे मोहरूपी ताले को खोला जा सकता है। हमें भेदविज्ञान की कला में पारंगत होना चाहिए। भावश्रुत की उपलब्धि के लिये हमारा अथक प्रयास चलना चाहिए । शरीर के साथ भौतिक जीवन जीना भी कोई जीवन है? शरीर तो जड़ है और आत्मा उजला हुआ चेतन है। जिस क्षण यह भेदविज्ञान हो जायेगा, उस समय न भोगों की लालसा रहेगी, न ही अन्य इच्छायें रहेंगी। मोह विलीन हुआ, समझो दुःख विलीन हुआ। सूर्य के उदित होने पर क्या कभी अन्धकार शेष रह सकता है। अतः बुद्धिपूर्वक सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करो। ___ एक दिन श्रीमद् राजचन्द्रजी अपनी दुकान पर बैठे थे। इतने में एक सज्जन आए उनके हाथ में एक ग्रन्थ था। उन्होंने उसे राजचन्द्रजी को दे दिया। राजचन्द्रजी उसे खोलकर पढ़ने लगे। आधा घण्टे बाद अत्यन्त उल्लास में भरकर ,खुशी से उछलते हुए बोले- धन्य है इस महाग्रन्थ को, इसमें तो धर्म के प्राण, आत्मा की सच्ची सुख-शान्ति की बात, आत्मा को पराधीनता से छुड़ाने की चर्चा एवं आत्म-स्वतंत्रता की घोषणा की गई है। अहो! यह ग्रन्थ तो अमृत रस का सागर, रत्नों का खजाना, कामधेनु और आत्मा का कल्पवृक्ष है। आज तो तुमने मुझे अमृत रत्न दिया है। वह ग्रन्थ 'समयसार' था। इतना कहकर राजचन्द्रजी पेटी में से मुट्ठी भर-भर कर हीरे-जवाहरात ग्रन्थ लानेवाले को देने लगे। ग्रन्थ लानेवाला तथा अन्य आसपास के व्यक्ति भी भौंचक्के होकर देखते रह गए। श्रीमद् राजचन्द्रजी शतावधानी बहुश्रुत विद्वान् थे। इनको महात्मा गाँधीजी ने अपना गुरु स्वीकार किया था। 0763_n

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