Book Title: Ratnatraya Part 01
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

View full book text
Previous | Next

Page 762
________________ धन है उसमें स्त्री का भी हक है । यह मेरा बालक है । तो राजा ने उसके न्याय की तारीख दे दी। इतने में ही उसने उसका न्याय सोच लिया और पहले से ही सिपाहियों को समझा दिया। अब वे दोनों स्त्रियाँ आयीं, लड़का भी साथ था, तो बड़ी स्त्री कहती है कि यह लड़का मेरा है और छोटी स्त्री कहती है कि यह लड़का मेरा है । तो वहाँ राजा ने यह निर्णय दिया कि देखो, लड़का पति का है, पति के धन पर स्त्री का बराबर हक होता है, इस लड़के के दो टुकड़े बराबर-बराबर कर दो और एक-एक टुकड़ा दोनों स्त्रियों को दे दो। तो सिपाही लोग नंगी तलवार लेकर उस लड़के के दो टुकड़े करने के लिये तैयार हुए। तभी छोटी स्त्री बोल उठी-महाराज! यह मेरा लड़का नहीं है, यह इसी का है, इसी को दे दो । और उधर बड़ी स्त्री खुश हो रही थी कि अच्छा न्याय हो रहा है। तो अनुभव ने बता दिया कि जो स्त्री मना कर रही है, उसका है यह बालक, बड़ी स्त्री का नहीं है। तो अनुयोगों की चर्चाओं में हम सर्वत्र लाभ पाते हैं । हमें आर्ष पर, आगम पर आस्था होनी चाहिए और सब तरह से हम अभ्यास बनायें तो हम अपने ज्ञान और वैराग्य का संतुलन ठीक रख सकते हैं। हमें स्व-पर का भेदज्ञान नहीं है, इसलिये हम ज्ञान की कदर नहीं कर रहे हैं। जो इन इन्द्रियों द्वारा जाना जाता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है । आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनिराज ने लिखा है- हमारा स्वरूप क्या है? "अवर्णोऽहं” मेरा कोई वर्ण नहीं, "अस्पर्शोऽहं” मुझे छुआ नहीं जा सकता । यह मेरा स्वरूप है। पर मोह के कारण यह अज्ञानी प्राणी इस पुद्गल शरीर को ही "मैं" मान लेता है। मोह-वहिन्मपाकर्तु स्वीकुर्तु संयमश्रिम् । छेत्तु रागदुकोद्धन समत्वभवम्ब्यताम् ।। मोह तो अग्नि के समान है। अग्नि का संताप तो देह पर अल्पकालीन असर डालता है, किन्तु मोहजनित संताप आत्मा को तपाता हुआ चिरकाल LU 762 S

Loading...

Page Navigation
1 ... 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800