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उपदेश करनेवाले उपाध्यायों में सच्ची भक्ति के प्रभाव से श्रुतज्ञानावरण कर्म का रस सूख जाता है, तब सकल विद्या सिद्ध हो जाती है, वात्सल्यगुण के धारक को देव भी नमस्कार करते हैं।
धर्म में वात्सल्य जगना, सो प्रवचन वत्सलत्व है। पुराणों में सुना होगा, अकलंक और निकलंक का उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है। ये दोनों भाई बड़े ही बुद्धिमान थे। अकलंकदेव को एक ही बार सुन लेने से पाठ याद हो जाता था और निकलंक देव को दो बार सुनकर पाठ याद होता था। उन दोनों की रुचि थी कि हम सभी प्रकार के धर्मों का, सिद्धान्तों का ज्ञान करें। सो उन्होंने कई जगह अध्ययन किया। वे दोनों लडके एक पाठशाला में पढ़ते थे। पढ़ते-पढ़ते काफी समय गुजर गया। एक दिन गुरु स्याद्वाद का पाठ पढ़ा रहे थे। खण्डनात्मक ढंग से तो किसी भी तत्त्व का खण्डन करने के लिए पहिले पूर्वपक्ष रखा जाता है। स्याद्वाद के पूर्वपक्ष में जो बात वहाँ आई तो गुरुजी कुछ अटक गये। समझ में न आया और क
ा कि हम इसे कल कहेंगे। पढ़ाई बंद हो गयी । अब समय देखकर, जब कोई न था तो अकलंकदेव ने, इस ग्रन्थ में एक ही शब्द की कमीबेसी थी जिसके कारण अर्थ नहीं लग रहा था तो, उसे सुधार दिया। __दूसरे दिन गुरु ने देखा, ओह! स्याद्वाद में इस पूर्वपक्ष को ऐसा सुधार सकने वाला इन विद्यार्थियों में से कौन है? निश्चय ही वह स्याद्वादी होगा, गुणी, चतुर होगा। उस समय धर्म के नाम पर इतना कड़ा शासन चल रहा था कि अपने को दूसरे धर्म वाले कहकर मुश्किल से रह पाते थे।
ओह! परीक्षा करें, देखें कौन-सा ऐसा विद्यार्थी है जो मेरी कल्पना से प्रतिकूल है। एक उपाय ध्यान में आ गया। एक मूर्ति रखी और सब लड़कों से कहा कि इस मूर्ति को लाँघते जावो। जो इस मूर्ति को न लांघेगा, समझेंगे कि वही जैन है। ओह! उस समय बड़ी कठिन समस्या थी अकलंक और निकलंक देव को। सोचने के बाद दोनों ने यह तय
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