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आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने लिखा है-"चाहे कितनी ही ऊँची अट्टालिका हो या गरीब की छोटी-सी झोपड़ी, कम-से-कम उसमें प्रवेश करने का एक द्वार तो जरूर ही होगा। इसी प्रकार कोई कितना भी अवगुणी हो, उसमें एक-न-एक गुण तो अवश्य होगा।
धर्मात्मा कभी भी दूसरों के दोषों को और अपने गुणों को नहीं कहता। धर्मात्मा को 'मेरे गुण जगत में प्रसिद्ध हों, मेरी पूजा हो' ऐसी भावना नहीं होती तथा किसी साधर्मी के दोष प्रसिद्ध करके उसे हल्का दिखाने की भावना नहीं होती, परन्तु धर्म की वृद्धि कैसे हो- यही भावना रहती है। जैसे माता को अपना पुत्र प्यारा है, अतः वह उसकी निन्दा नहीं सह सकती, इसलिये उसके दोष छिपाकर गुण प्रगट करना चाहती है, वैसे ही साधर्मी जीव को अपना रत्नत्रय धर्म प्यारा है, अतः वह रत्नत्रय मार्ग की निंदा को सह नहीं सकता, इसलिये वह ऐसा उपाय करता है कि जिससे धर्म की निंदा दूर हो और धर्म की महिमा प्रसिद्ध हो। सम्यग्दृष्टि गुणग्राही होता है। वह अपने गुणों और दूसरों के दोषों को छिपाता है। वह अपनी निंदा करता है और दूसरों की प्रशंसा। ___ आचार्यश्री ने लिखा है- "दोषों की ओर दृष्टि होने से पर में स्थित श्रेष्ठगुण भी दृष्टिगोचर नहीं होते तथा गुणों की ओर दृष्टि होने पर दोष दिखना संभव नहीं है। अतएव पर में स्थित दोषों का नहीं, बल्कि गुणों का अवलोकन करके अपने में स्थित दोषों की शुद्धि करना ही सफलता है।"
उपगूहन के विषय में कहा गया है- “निज गुन औ पर औगुन ढाँके।" उपगूहन की उपलब्धि के लिये अपने गुणों का प्रचार करना, उनको प्रकट करना बंद करो तथा दूसरों के अवगुणों को ढाँको, उनके गुण प्रगट करना प्रारंभ करो। अपने ही गुणों का बखान करना तो स्वयं के विकास की राह अवरुद्ध करना है। अपने गुणों को प्रचारित करने वालों को अहंकार हो जाता है कि उन्हें सब ज्ञान है। अहंकार की उत्पत्ति पतन
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