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साधु बोला- 'अजीब हो, मैंने कहा तुम रख लो, तो तुम ही रख लोगे? नहीं, इसे मैं रख लेता हूँ।" "ठीक है", छोटे ने कह दिया। बड़ा कब मानता? फिर बोला - "अभी कह रहे हो ठीक है, मैं रख लूँ, कल दुनियाँ को बताओगे कि बड़े ने सब रख लिया ।" छोटा क्या कहता, फिर कह दिया- "जैसा आप ठीक समझें।" बड़े ने कहा- "इसे आधा-आधा कर लेते हैं।” छोटे ने कहा- "ठीक है ।" क्रोध में आकर बड़े साधु ने बर्तन को फेंकते हुए कहा- “अजीब आदमी हो, आधा बर्तन न तुम्हारे काम का न मेरे काम का।” छोटे ने पूर्ववत् संयत भाव से दुहरा दिया कि” कह तो रहा हूँ- जैसा आप ठीक समझें।" बड़े ने कहा - "क्या तुम झगड़ा नहीं कर सकते?” “नहीं, मैं झगड़ा नहीं कर सकता" छोटे ने कहा । तो बड़े ने कहा— “उठाओ बर्तन, हम साथ-साथ रहेंगे ।" छोटे साधु के चित्त की वृत्ति निश्छल और वात्सल्य युक्त थी ।
स्वार्थयुक्त प्रेम छल होता है । वह प्रेम नहीं, चापलूसी है। चापलूसी में हम बहुत महारत हासिल कर चुके हैं। किसी से काम हो तो उसके प्रति प्रेम-ही-प्रेम दर्शाते हैं। पिता की संपत्ति लेने के समय लड़के श्रवणकुमार बन जाते हैं। माल मिला, जायदाद मिली कि इक्किसवी सदी के ये श्रवणकुमार हरणकुमार बन जाते हैं । यह चापलूसी है, छल है, स्वार्थ प्रेरित है, कपट है। सात्विक प्रेम तो आत्मा की वस्तु है । निश्छल प्रेम में धर्म होता है। वस्तुनिष्ठ स्वार्थ पर टिका प्रेम यथार्थता को छू नहीं सकता । उसे तो प्रेम का फ्रेम ही कहना चाहिए । यदि प्रेम की जगह फूट आ जाये तो बड़े से बड़ा समाज भी किसी उपयोग का नहीं रहता ।
एक बहुत विशाल वृक्ष था, हरा भरा । उसकी घनी छाया राहगीरों की थकान मिटाती, फलफूल से लदी डालें पक्षियों को बसेरा देतीं । सदैव पक्षियों की चहचहाट बनी रहती थी । एकाएक वह पेड़ सूखने लगा । पत्तियाँ पीली पड़ने लगीं, झड़ने लगीं, शाखायें सूख कर टूटने लगीं । गाँव
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