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नहीं, प्रयोग है। भौतिक नहीं, आध्यात्मिक है। यह बाह्य प्रदर्शन नहीं, आत्मदर्शन है।
माता अपने पुत्र का दुःख देख नहीं सकती । हिरनी अपने बच्चे के प्रेम वश उसकी रक्षा हेतु सिंह के सन्मुख आ जाती है। यदि गाय का बछड़ा कुँए में गिर जाये तो पीछे से आती हुई उसकी माँ भी बछड़े के प्रेम वश उस कुँए में गिर जाती है।
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सच्ची माता के प्रेम की बात आती है कि एक बालक के लिये दो स्त्रियों में झगड़ा हुआ। दोनों ने कहा कि यह मेरा पुत्र है । न्यायधीश ने सत्य की परीक्षा हेतु कहा कि बालक के दो टुकड़े करके एक-एक टुकड़ा दोनों को दे दिया जाये। यह सुनते ही जो सच्ची माता थी वह जोर-जोर से रोने लगी और पुत्र की रक्षा के लिए बोली- उसे ही बालक दे दीजिये, मुझे नहीं चाहिए। अर्थात् सच्ची माता पुत्र का दुःख देख नहीं सकती। माँ का सच्चा प्रेम उमड़ आया और दोनों की परीक्षा भी हो गई कि पुत्र किसका है ।
प्रद्युम्न कुमार का जन्म होते ही किसी बैरी ने अपहरण कर लिया था। और जब वे 16 वर्ष की अवस्था में घर पधारे तो उन्हें देखते ही रुकमणी माता के हृदय से वात्सल्य की धारा उमड़ पड़ी। इसी प्रकार साधर्मी का प्रेम भी वास्तविक प्रसंग पर छिपा नहीं रहता । इस अंग में विष्णुकुमार मुनिराज प्रसिद्ध हुये हैं ।
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उज्जैन नगरी के राजा श्रीवर्मा के बलि इत्यादि चार मंत्री थे । वे नास्तिक थे। उन्हें सच्चे धर्म की श्रद्धा नहीं थी। एक बार उस उज्जैन नगरी में सात सौ मुनियों के संघ सहित आचार्य श्री अकम्पन का आगमन हुआ। सभी नगरजन हर्ष से मुनिवरों के दर्शन करने गये । राजा की भी उनके दर्शन करने की इच्छा हुई और उन्होंने मन्त्रियों को साथ में चलने को कहा। यद्यपि इन बलि आदि मिथ्यादृष्टि मंत्रियों की तो जैन
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