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लेते हैं। इस कारण समन्तभद्र ने गुरु से समाधि के लिए कहा। गुरु ने जान लिया कि इनके द्वारा धर्म की प्रभावना होगी, इसलिए उन्होंने समाधि के लिए मना कर दिया और कहा कि जाओ, येन-केन-प्रकारेण जैसे बने इस व्याधि का उपचार करो। तब वे वैष्णवी साधु के वेश में बनारस पहुंचे। वहाँ जाकर राजा से कहा कि ये सारा मिष्ठान्न मैं शिव जी को खिला सकता हूँ। इस तरह अकेले, मन्दिर में चारों तरफ से बंदकर जिससे किसी को पता ना चले, वे सारा मिष्ठान स्वयं खा गये। इस बात से राजा बहुत प्रभावित हुए। इस तरह समन्तभद्र वहाँ रहने लगे। कुछ समय बाद जब असातावेदनीय कर्म का क्षय हुआ, धीरे-धीरे क्षुधावेदना शान्त होने लगी, मिष्ठान बचने लगा, तब राजा से एक दिन पुजारी कहने लगा कि ये तो देवता की अविनय करते हैं और मिष्ठान भी बचा पड़ा रहता है। राजा ने इनसे कहा कि तुम शिव जी की अविनय करते हो, इस पिण्डी को नमस्कार करो। तब वे राजा से बोले- यह पिण्डी मेरा नमस्कार नहीं झेल पायेगी। परन्तु जब राजा नहीं माना, तब उन्होंने 'स्वयंभूस्तोत्र' की रचना की। इस स्तोत्र के आठवें श्लोक की रचना के माध्यम से जब नमस्कार किया, तब पिण्डी फट गयी और चन्द्रप्रभु भगवान् की प्रतिमा प्रकट हो गयी। इस अतिशय से प्रभावित होकर राजा ने अपने भाई, मंत्री आदि के साथ जैनधर्म स्वीकार किया। समन्तभद्र स्वामी का भस्मक रोग शान्त हो गया। उन्होंने गुरु के पास जाकर पुन: दीक्षा ग्रहण की और अनेक ग्रन्थों की रचना की। आचार्य शान्तिसागर महाराज ने भी अनेक उपसर्ग झेलकर जनता में धर्म की प्रभावना की। आचार्यों की भक्ति करो और उनका आचरण अपने अंदर उतारने का प्रयास करो।
जो आचारज-भगति करै है, तो निर्मल आचार धरै है।
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