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कोई निकाल न सके, उसे घर कहते हैं । ये ईंटों के घर क्या घर हैं? इनमें रहने का कुछ ठेका है क्या? एक साधु जा रहा था । उसे आगे एक हवेली मिली। बाहर उसका चौकीदार बैठा हुआ था । साधु ने पूछा- यह धर्मशाला किसकी है? चौकीदार बोला- महाराज ! यह धर्मशाला नहीं है। साधु बोला- हम यह नहीं पूछ रहे हैं। हम तो यह पूछ रहे हैं कि यह धर्मशाला किसकी है? यह सब वातावरण देख नौकर मालिक के पास भागा । मालिक बोला कि महाराज ! यदि आपको धर्मशाला में जाना है, तो हम नौकर को साथ भेज देते हैं, वह बता देगा। साधु जी मालिक से बोले- यह धर्मशाला किसकी है? मालिक ने दिमाग से सोचा, इसमें कुछ-न-कुछ राज अवश्य है, बिना मतलब के यह नहीं कह रहे हैं। सेठ
साधु जी को गद्दी के पास बुलाया और कहा - महाराज ! यह धर्मशाला नहीं है, मेरी हवेली है । साधु ने पूछा - इसे किसने बनवाया था ? सेठ बोला- महाराज! मेरे दादा ने इसको बनवाना शुरू किया था, फिर वे तो पूरी न बनवा सके, मेरे पिता जी ने इसे पूरा कराया । साधु बोला- फिर पिताजी कितने दिन इसमें रहे ? सेठ बोला कि 3 वर्ष रह सके, फिर गुजर गये। साधु बोला कि तुम कितने दिन इसमें रहोगे ? सेठ सहम गया । साधु बोला कि जिसे तू हवेली समझ रहा है, इसके छोड़ने के समय तुझे एक मिनट भी ठहरने की अनुमति न मिलेगी। हाँ, उस धर्मशाला में भले ही अनुमति मिल जावे मंत्री से कह कर । फिर यह धर्मशाला ही तो है । इस प्राणी को ऐसा मोह लगा है, ऐसे मोहजाल में फँसा हुआ है कि यह मेरा है, यह उसका, आदि की रट लगाये हुए यह दुःख भोग रहा है । सोचो तो, जब पूर्वभव का हमें कुछ ज्ञान नहीं कि हम कहाँ थे, कौन हमारे माता-पिता थे, तब इस जन्म की ही अगले भव में क्या याद रहेगी? अतः मैं अपने चेतन के घर को पहिचानकर अपनी आत्मा के कल्याण के मार्ग पर लगूँ। सदा यही भावना भानी चाहिए | विषय - कषाय आदि का जल
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