Book Title: Ratnatraya Part 01
Author(s): Surendra Varni
Publisher: Surendra Varni

View full book text
Previous | Next

Page 717
________________ दिया। अन्त में दोनों परस्पर लड़ते-लड़ते मर गये। शूकर ने मुनिराज की रक्षा के लिए प्राण दिये, इसलिए मरकर देव हुआ और सिंह ने मुनिराज को मारकर खाने के भाव से प्राणों को त्यागा, इसलिए नरक गया। इसलिए रत्नत्रय के भण्डार, शान्तिपुँज, परम दयालु मुनिराज पर आये उपसर्ग को दूर करने में यदि प्राण भी चले जायें, तो धार्मिक पुरुष को पीछे नहीं हटना चाहिए। साधुसमाधि का एक अभिप्राय यह भी है। जीवन्धरकुमार ने एक मरणोन्मुख कुत्ते को णमोकार मंत्र सुनाया तो तत्काल देव आयु का बन्ध कर वह पशु पर्याय को छोड़कर देव हो गया। पार्श्वकुमार ने जलते हुए नाग-नागिन का अन्त समय देखकर उनको णमोकार मंत्र सुनाया तो दोनों मरकर धरणेन्द्र-पद्मावती हुए। इससे स्पष्ट होता है कि समाधिमरण में सहायक होना महान उपकार है। अपने मित्र को शुभगति प्राप्त कराने के लिए उसके समाधिमरण में अवश्य सहायता देनी चाहिए। मरते समय न तो मनुष्य बोल सकता है और न कछ स्मरण कर सकता है। अत: उसके हितैषी मित्रों का परम कर्तव्य है कि वे उस समय उसको वैराग्यवर्द्धक श्लोक, पद्य, गद्य, पाठ आदि सुनायें। समाधिभाव के प्रेमीजीव जब कभी दूसरे धर्मात्माजनों पर संकट आया देखते हैं तो उन सब संकटों को दूर करने का उनका यत्न चला करता है। अपने आपको समाधिरूप बनाने का यत्न करें और यथाशक्ति अन्य जीवों के चित्त को समाधानरूप बनाने का यत्न करें, समाधि का परिणाम रखें, यह साधुसमाधि भावना है। इस भावना के प्रताप से यह ज्ञानीपुरुष ऐसी विशिष्ट पुण्यप्रकृति का बंध कर लेता है जिसके उदय में यह त्रिलोकाधिपति तीर्थंकर महापुरुष होता है। साधु समाधि सदा मन लावै, तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावै। 0 7170

Loading...

Page Navigation
1 ... 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800