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शरीर को देखकर ग्लानि मत करना। उनकी रत्नत्रय से मंडित आत्मा को देखकर अपने सिर को झुका देना। यह सम्यग्दृष्टि का निर्विचिकित्सा अंग है ।
एक बार एक दम्पति आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के पास आये। बाबू साहब गोद में बच्चे को लिये हुये थे । पत्नी भी पास में आकर बैठ गयी। थोड़ी देर बाद उस बच्चे ने बाबूजी की गोद में पेशाब कर दी । बच्चे को क्या मालूम कि यह बाबूजी की गोद है या माता जी की । बस, बाबूजी ने तुरन्त बच्चे को फेंक दिया अपनी पत्नी की ओर । "सम्भालो जी अपने बच्चे को । सारे कपड़े खराब कर दिये ।" किन्तु माँ ने उस बच्चे को फेंका नहीं । थोड़ी देर बाद उस बच्चे ने टट्टी भी कर ली। बाबूजी नाक सिकोड़ने लगे, किन्तु माँ ने उसको साफ किया और फिर आकर बैठ गयी। माँ ने कभी अपने बच्चे को आज तक फेंका क्या? और आचार्य श्री तो निस्पृह होकर बैठे थे। साधु तो सुगन्ध और दुर्गन्ध दोनों में समभाव रखते हैं। वे तो मल - परीषह पर विजय प्राप्त करते हैं।
घ्राणेन्द्रिय का विषय तो गन्ध लेना है। उसमें तो सुगन्ध और दुर्गन्ध का कोई भेद नहीं । "जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थं” अर्थात् इस शरीर का तो स्वभाव ही ऐसा है, फिर इस शरीर से क्या ग्लानि करना? अतः कम से कम साधु के शरीर से तो ग्लानि न करो। उनका शरीर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप अखण्ड रत्नत्रय के द्वारा पवित्र बन चुका है । "गुणप्रीतिः” अर्थात् गुणों के कारण इस शरीर से प्रेम करना । ध्यान रखो, इस मल-मूत्रमय शरीर में ही रत्नत्रय से संयुक्त आत्मा विराजमान है। यदि यह शरीर न होता, तो क्या आत्मा परमात्मा बन पाता? अतः कभी भी मुनिराजों के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना । इसी को आचार्य समन्तभद्र महाराज ने निर्विचिकित्सा अंग कहा है। हमें कुत्सित व मलिन शरीर को नहीं बल्कि उनके ज्ञान व गुणों को देखना चाहिये ।
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