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अदृष्टि
सम्यग्दृष्टि सच्चे देव, शास्त्र, गुरु, धर्म और झूठे देव, गुरु, धर्म को अच्छी तरह पहचान कर असत्य मार्ग की प्रशंसा करना छोड़ देता है । 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार' में श्री समन्तभद्र आचार्य ने लिखा हैकापथे पथि दुःखानां कापथस्थेपि सम्मतिः । असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढां दृष्टिरुच्यते । ।
लौकिक चमत्कारपूर्ण कुमार्ग और कुमार्ग में स्थित होने पर भी फूलते हुये किसी कुमार्गस्थ -मिथ्यादृष्टि जीव को देखकर उसके विषय में मन में ऐसा भाव नहीं लाना कि यह मार्ग अच्छा है अथवा इस मार्ग का पालन करने वाला मनुष्य अच्छा है। शरीर से उसकी प्रशंसा नहीं करना और वचन से उसकी स्तुति नहीं करना, अमूढदृष्टि अंग है।
कभी-कभी मनुष्य कुमार्ग में भीड़ व चमत्कार आदि को देखकर उस धर्म की प्रशंसा कर देता है कि देखो! फलाने मन्दिर में कितने यात्री जाते हैं, फलाना साधक कितना अच्छा बोलता है, फलाने शास्त्र में कितनी अच्छी बात कही। पर मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा करने से मिथ्यात्वी के अभिमान की पुष्टि होती है और वह प्रशंसा में फूलकर कभी भी मिथ्यात्व को छोड़ने को तैयार नहीं होता । अतः गलत करना भी नहीं और गलत का समर्थन भी नहीं करना चाहिये; क्योंकि मिथ्यामार्ग में चलना, दूसरों को चलाना या चलते हुये की प्रशंसा करना तो स्वयं को दुःखों के मार्ग में ढकेलना है।
सम्यग्दृष्टि जीव श्रद्धालु तो होता है, परन्तु अन्धश्रद्धालु नहीं होता ।
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