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सब में यह मोही जीव एकमेक हो रहा है, यह उसका मिथ्यात्व है। यही संसारभ्रमण का कारण है। अतः मोह को नष्ट कर सम्यग्दर्शन को प्राप्त करना कर्तव्य है।
जिसका मोह दूर हो गया, वह अपने आप में घटित करता है कि मेरे लिये मैं ही सबकुछ हूँ, मेरी ही करतूत मुझे सुख - दुःख देती है । जैसा मेरा ज्ञान होगा, उसी प्रकार का मेरा भविष्य बनेगा। इस बन्धन से मुक्त करने के लिये भी कोई दूसरा न आयेगा, खुद को ही करना होगा। संसार की अनुकूलता - प्रतिकूलता में अपना मन मत लगाओ । आत्मस्वरूप का चिंतन व ध्यान करो, जिससे कर्मबन्ध का अभाव हो और आत्मा में दृढ़ता आ जाये । नेत्र वही हैं जिनमें निज वस्तु देखने की शक्ति हो, अन्यथा उनका होना या न होना दोनों बराबर हैं । इसी प्रकार ज्ञानी वही है, जो ज्ञान के अनुरूप आचरण करे । अकेले ज्ञानी बनने मात्र से मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। तदनुकूल आचरण करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है। आचार्यों ने आचरणानुकूल ज्ञान को ही यथार्थ ज्ञान कहा है
थावह्मि सिक्खिदे जिणई बहुसुदं जो चस्ति संपुण्णो । जो पुण चरत्तिहीणो किं तस्से सुदेण बहुएणा ।। 4 ।।
जो चारित्र से परिपूर्ण है, वह थोड़ा शिक्षित होने पर भी बहुत धारी को जीत लेता है। किन्तु जो चारित्र से रहित है, उसके अधिक ज्ञान से भी क्या प्रयोजन ? " सा विद्या या विमुक्तये ।" वही विद्या कहलाती है, जो मुक्ति का कारण हो । चारित्र के बिना मनुष्य मदोन्मत्त हाथी के सदृश होता है। जैसे जंगल में स्वच्छन्द विचरण करते हुये हाथी वृक्षों को उखाड़ फेंकते हैं, वैसे ही चारित्र से रहित व्यक्ति अपने जीवन को बर्बाद कर लेते हैं । चारित्रविहीन व्यक्ति का ज्ञान कार्यकारी नहीं होता । उसका एक दृष्टात है
एक किसी भाई ने तोता पाल रखा था और उसे यह सिखा दिया था कि “इसमें क्या शक है?” एक कोई ब्राह्मण भाई आया। उसे वह तोता बड़ा सुन्दर लगा । पूछा- क्यों, भाई ! तोता बेचोगे? वह बोला- हाँ-हाँ बेचेंगे । ...कितने रुपये लोगे? 100 रुपये लेंगे। अरे! तोते तो 8-8 आने के आते हैं। इसमें 100 रुपये के योग्य कौन-सी खास बात है? उसने बताया कि इस तोते से पूछ लो कि
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