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चाहते हो तो अपनी इच्छाओं को घटाओ। देखो, तुम इस इच्छा के कारण व्यर्थ में परेशान हो रहे हो। तुम सोच रहे थे कि इसे एक व्यक्ति का भोजन कराकर शांत कर दूंगा। इसी प्रकार प्रत्येक मानव सोचता है कि बस मेरी यह इच्छा पूरी हो जाये तो मुझे शांति मिलेगी। लेकिन यह इच्छा कभी शांत नहीं होती।
एक बार गोटेगाँव के एक सेठ जी क्षमासागर महराज से बोले- महराज जब हम अलग हुये थे तो मुझे 65 रुपये मिले थे। मैंने उन रुपयों से व्यापार किया तो हमारे पुण्य के उदय से वे 65 रु. पहले पैंसठ सौ, फिर पैंसठ हजार
और अब पैंसठ लाख हो गये हैं, पर मेरी इच्छा है कि ये कब पैंसठ करोड़ हो जायें। पहले मैं रुपये कमाता था, पर अब तो मैं रुपये कमाने की मशीन हो गया हूँ। पहले मेरा मन धर्म करने का होता था और मेरे पास समय भी बहुत रहता था। पर अब मेरा मन कभी-कभी धर्म करने का होता तो है, पर अब मेरे पास समय बिल्कुल भी नहीं है। उन्हें इस बात का दःख है, पर अब मश्किल है कि वे इस इच्छा डायन से बच पायें। इच्छायें पूरी करने पर और बढ़ती ही जाती हैं। अतः यदि तुम अपना कल्याण करना चाहते हो तो इच्छा निरोधरूपी तप करके इन इच्छाओं को घटाते-घटाते समाप्त कर दो, तो तुम्हें भी धीरेरे शांति मिल जायेगी और पूर्ण इच्छाओं के समाप्त होते ही मोक्ष की प्राप्ति होगी, जहाँ पूर्ण नराकुल अनंत सुख मिलेगा। इच्छाओं के कारण ही राग-द्वेष होता है। यदि इच्छाएँ घटना शुरू हो गयीं, तो समझो की मोक्ष का मार्ग मिल गया।
गृहस्थी तो एक जंजाल है। गृहस्थी के चारित्र को आचार्य गुणभद्र स्वामी ने बताया है कि वह तो हाथी के स्नान के समान है। हाथी ने स्नान किया और बाद में बाहर निकलकर धूल को सूंड में भरकर अपने ऊपर डाल लिया। परसंबंध में हानि-ही-हानि है। अकेला है तो बड़ा सुख है और यदि दुकेला हो गया, विवाह हो गया, तो क्या मिला? चौपया हो गया। भंवरा हो गया। बच्चा हो गया छ:-पाया हो गया और बच्चे की शादी हो गई तो अष्टपाया हो गया अर्थात् मकड़ी बन गया। मकड़ी का जाल होता है। वह स्वयं जाल बनाती है और उसी में फँसा जाती है। इसी प्रकार इसने स्वयं जाल बनाया और 70-80
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