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तो उसके हृदय में वैराग्य भावों का संचार होता है। उसी प्रकार तीर्थंकर भगवान् की प्रतिमा के दर्शन-पूजन से आत्मा में वीतराग भावों का संचार हुए बिना नहीं रहता। तीर्थंकर भगवान् की प्रतिमा के देखने से आत्मा में ये भाव होते हैं कि धन्य है इनका आदर्श त्याग, धन्य है इनकी आत्मिक शक्ति, जिसके द्वारा अनादिकालीन वैभाविक परिणति को नाश कर आत्मा स्वाभाविक अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप शक्ति को प्राप्त कर जीवन्मुक्त अवस्था को प्राप्त हुई हैं। वीतराग प्रभु की मूर्ति न होती, तो फिर हमारी आत्मा में ये आदर्श भाव भी पैदा नहीं हो सकते। तब मोक्ष के उपाय को नहीं सोच सकते और सांसारिक विषय-कषाय रूपी कीचड़ से किसी प्रकार नहीं निकल सकते।
भक्त भगवान् के वास्तविक स्वरूप तथा इनकी आत्मा की विशुद्ध वीतरागता की उपासना करते हैं कि हे प्रभो! आपने राज्यलक्ष्मी को तृण के समान नगण्य समझते हुये त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा धारण की, जिसमें लेश मात्र भी आरंभ-परिग्रह नहीं था। आपने ध्यानरूपी अग्नि से घातिया कर्मरूपी ईंधन को भस्म किया, जिससे आपकी आत्मा में अनन्तचतुष्टय उत्पन्न हो गया तथा जनसाधारण में पाये जाने वाले क्षुधा, तृषा, भय, राग, द्वेष, चिन्ता आदि अठारह दोषों से रहित होकर वीतरागता की पराकाष्ठा को प्राप्त हुए। आपकी आत्मा में अनन्त गुण हैं, जिन्हें बृहस्पति भी निरूपण करने में समर्थ नहीं हैं, तब हम सरीखे अल्पज्ञानी उनका निरूपण किस प्रकार कर सकते हैं? फिर भी भक्तिवश हम आपकी स्तुति कर रहे हैं। आपने केवलज्ञान उत्पन्न हो जाने पर महान् धर्मतीर्थ का निरूपण किया, जिसकी छत्रछाया में रह कर संसार के प्राणी जन्म-मरण से छुटकारा पाकर मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। जिनेन्द्र भगवान् की पूजा को परस्परा से मोक्ष का कारण बताया है।
"पूयाफलेण तिलोके सुरपुज्जो हवेइ सुद्धमणो।" ___ जो पुरुष शुद्ध हृदय होकर भगवान् की पूजन करता है, वह तीनलोक में देवादिक से पूजनीय तीर्थंकर होता है। यह पूजा का फल बतलाया है। तात्पर्य यह है कि जिनेन्द्र भगवान् की पूजा के फल से श्रावक स्वर्गलोक में जाकर
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