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किसी शत्रु ने चढ़ाई कर दी। मंत्री दौड़कर राजा के पास आये-राजन्! अब क्या करना चाहिये? शत्रु एकदम चढ़ आये हैं। अब हम लोग क्या करें? साधुजी बोले-अच्छा, हमारी पेटी उठा दो। साधुजी ने सब राज्याभूषण उतारकर लंगोटी पहन ली, फिर कहा-हमें तो यह करना चाहिये और तुम्हें जो करना हो सो करो। ऐसा कहकर चल दिये।
आचार्य समझा रहे हैं-आत्मा मोह के दुःख से मर रहा है, तो सर्व पदार्थों के मोह को छोड़ दो और अपनी रक्षा करो। बहिरात्मा प्राणी मोह के कारण अपने स्वभाव को भूलकर परपदार्थों में ममत्व करके, उनका संग्रह करके व्यर्थ ही महान दुःखी हो रहे हैं। अपने में यह भावना भाओ कि जगत में मेरा कुछ भी नहीं है। जिनको जगत में रिश्तेदार, नातेदार मानते हो, वे भी तुमसे भिन्न हैं। बस, उनसे अपने को जुदा समझो। धन है, वह भी प्रत्यक्ष भिन्न है। उसको भी भिन्न समझो। शरीर से भी अपने आपको जुदा समझो। इसके बाद द्रव्यकर्म, भावकर्म से भी अपने को जुदा समझो। अपने आपसे अपने आप को दुःख नहीं होता, परन्तु पर पदार्थों से मोह होने के कारण ही दुःख होता है।
यह जीव चेतना लक्षण से युक्त है। परन्तु यह अपने स्वरूप को न जानने के कारण बहिरात्मा बना मनुष्य, तिर्यंच आदि चार गतियों में घूमता फिरता है। सुख का मूल कारण अपना अपनेरूप अनुभव है। जब जीव अपने को शरीररूप अनुभव करते हैं तो अनेक प्रकार की आकुलताएँ उन्हें घेर लेती हैं, नाना प्रकार के विकल्प घेर लेते हैं। इसके विपरीत, जब जीव अपने को अपनेरूप, चैतन्यरूप अनुभव करते हैं, तो कोई आकुलता नहीं रहती।
इस जीव के लिये दो मुख्य बातें जानना आवश्यक हैं। एक तो यह कि इसका समस्त दुःख राग-द्वेष के कारण है, पर-पदार्थों से नहीं। दूसरी यह कि अपने चैतन्य को पहचाने बिना शरीर में अपनापना नहीं मिट सकता, शरीर में अपनापना मिटे बिना रागद्वेष नहीं मिट सकता, और औषधि भी एक ही है-शरीर और कर्मफल से भिन्न अपने को चैतन्यरूप अनुभव करना। लोक में भी देखा जाता है कि दूसरे लोगों के लाभ-हानि, जीवन-मरण को जानने पर भी हमें कोई सुख-दुःख नहीं होता। इसी प्रकार यदि शरीरादि से भिन्न निज-आत्मा
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