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[ ३६ ] गान अनेक रूपों में हुआ है। वैसे वीर शब्द का उल्लेख अतिप्राचीन काल में ऋग्वेदसंहिता (१.१८.४; १.१४४.८; ४.२६.२, ५.२०.४; ५.६१.५), अथर्ववेद (२.२६.४ ; ३.५.८), पाश्वलायनादि - श्रौतसूत्र, पञ्चविंशब्राह्मण (१६.१.४), बृहदारण्यकोपनिषद् (५.१३.१ ; ६.४.२८), छांदोग्योपनिषद् (३.१३.६), शरभोपनिषद् (११), नीलरुद्रोपनिषद् (२३), नसिंहपूर्वतापिनी (२.३; २.४), नृसिंहोत्तरतापिन्युपनिषद् (२,४,५,६) आदि में तेज, पराक्रम और शौर्यादि अर्थों में मिलता है। इससे हमारी संस्कृति में वीरों की विशिष्ट परम्परा ही लक्षित नहीं होती अपि तु संस्कृत-साहित्य में आदर्श नायक के गुणों में वीरत्व एक अनिवार्य गुण के रूप में कवियों द्वारा अपनाया गया है ।
राजस्थान के इतिहास में युद्धों की अधिकता के कारण सहस्रों युद्धवीरों का उल्लेख हमें अनेक रूपों में मिलता है परन्तु युद्धवीरों के अतिरिक्त धर्मवीरों, दानवीरों और दयावीरों को भी यहाँ कमी नहीं रही। वस्तुतः युद्धवीर के उदात्त चरित्र के साथ अन्य वीरात्मक भावनाओं का गुंफन भी किसी न किसी रूप में हमें दृष्टिगोचर हो ही जाता है। वैसे उत्साह को वीररस का स्थायीभाव रसशास्त्रियों ने माना हो है परन्तु त्याग और संयम की जो गरिमा चारों प्रकार के वीरों में देखने को मिलती है वह भी इन वीरों के दृष्टिकोण की एकता को ही प्रतिपादित करती है । अत: इन वीरों ने हमारी संस्कृति और धर्म को जो महत्त्वपूर्ण देन दी है उसका न केवल यशोगान ही अपि तु दार्शनिक लेखा-जोखा भी राजस्थानी साहित्य में अनेक रूपों में मिलता है । पद्यात्मक शैली में इन विषयों को लेकर, संकड़ों कवियों ने जहाँ अनेकों महाकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तक-काव्य लिखकर अमरत्व प्राप्त किया है वहाँ राजस्थानी भाषा की विशाल गद्य-परम्परा में वातों, ख्यातों, वनिकायों में इस प्रकार की घटनायें भी अनेक प्रसंगों को लेकर वणित की हैं । साहित्यिक दृष्टि से यह वात-साहित्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है ।
'वात' शब्द वार्ता का अपभ्रंश रूप है। भारतीय वाङ्मय में वार्ता का प्रयोग ठेठ सीतोपनिषद् (३१), सागरहस्योपनिषद् (२५०,११), आश्रमोपनिषद् (२), आदि में उपलब्ध होता है । प्रतीत होता है कि इससे पहले वार्ता के लिये 'कथा' शब्द ही प्रचलित रहा है क्यों कि 'ऐतरेय-ब्राह्मण (५.३.३), जैमिनीयब्राह्मण (६), जैमिनीयोपनिषद्ब्राह्मण (४.६.१.२), विष्णुधर्मसूत्र (२०.२५)
आश्वलायन-गृह्यसूत्र (४.६.६), छान्दोग्योपनिषद् (१.८.१), नारदपरिव्राजकोपनिषद् (४.३), आदि में इस शब्द का प्रयोग वार्ता के अर्थ में मिलता है। - वार्ता का चाहे जो रूप प्राचीन वाङ्मय में रहा हो किन्तु राजस्थानी- साहित्य में यह शब्द विशेष अलंकृत और सुव्यवस्थित साहित्यिक शैली में लिखी
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