Book Title: Rajasthani Sahitya Sangraha 03
Author(s): Lakshminarayan Dixit
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur

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Page 314
________________ परिशिष्ट ३ एक गई दूजी गई, हिव तीजी को नारी नही का प्रापरी, कुंडी जगमं श्रो मेल । केल ।। - १११-२१० श्रो जोऐ थांरी वाट । - १७७-३. गी० श्रो दोवो घर ग्रापरं, जिण दीठां जीवोह । - १६१-१२६ क कंचू कस्यो दिल हथ कोयो, मोलोयो तन सोनार । जाण केलना पांन पर, कपूर ढुल्यो कंठ कथोरा काठका, दन थोडा कटारी कुनार, लोहाली लाजी श्राजूणी प्रध रात, नागण गिल बैठी कटारी कुनारि लोहारी लाजी नाग तणे घट मांहि, बाढा नींबू ही कनक थाल में छेद करि, मारी लोहां कमर बँधावत कुंवरकु, विरह उलट गयो सजन वीछडण कब मिलण, काहां जांणें कब कर ढीला घट सांघुड़ा, नीर हुली बुल जाय बै पंथोडी तिरस्यो नही, नेयणाँ रहीयो लुभाय बे । ६१-१२५ कलमै को कुंभार, माटी रो भेलो करें | मोहि । होय ।। - १५०-६ Jain Education International नीरधार ।। - ११६-२४७ जाणा । १६४-४ नहीं । नागजी ॥ - नहीं । भली ॥ - १६०-५६ - १६०, टि० मेष । --- ४- ३० चाक चढावणहार, कोई नवो निपावे नागजी ।। - १६२-७७ कल मैं को कुंभार, माटी रो भेलो करे । जे हूं हुंती कुंभार, तो चाक उतारूं नागजी ।। - १६२ - टि० कला प्रकासत दीपको, दूणा भासत दीप | समीप ॥ - ४६- ३८२ रंभा दिषा छैबि रूपकी, स्पामा षडी कांमण कारीगर तणी, कांमण केथ सात कीयो साँसे गई, भलो दिखायो नेह ।। २१० २०८ पडेह् । काम विचारी ने कहो, रहसी तिणरी लाज बे । ऊठ कहो ऊतावला, तो विणसाडे काज बे ॥ ६६-१४२ कामण होयडा कोरणी, जीवत रही तुं प्राज बे । हिव सारी सिध होयसी देह विलूषी कामातुर होरां कहै, रबि राह चाहत चातुर अधिक चित, धातुर होत काची कली मत लूबीयँ, पाका लागेगा हाथ बै । जीवत जावेगा मानवी, नही को बोजा साथ बे ॥ ६६-१११ नाज बे ।। - ९४ - १३४ बिहरंत । अनंत ।। - ६-४१ For Private & Personal Use Only [ २४५ www.jainelibrary.org

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