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सम्पादकीय
आज जिस प्रान्त को राजस्थान कहा जाता है उसका यह नामकरण अधिक प्राचीन नहीं है । बहुत प्राचीन काल में इस भूभाग के नाम मरुप्रदेश, मरुभूमि तथा मरुस्थल आदि मिलते हैं जिसका प्राशय मुख्यतया वर्तमान पश्चिमी राजस्थान की मरुभूमि से ही रहा होगा। वैसे राजस्थान शब्द प्राचीन ख्यातों व वातों आदि में प्रयुक्त हुआ है परन्तु उसका अर्थ वहाँ राजधानी अथवा किसी राजा के आधिपत्य के दस्तूर आदि से है। संस्कृत-व्युत्पत्ति 'राज्ञः स्थानम्' से भी यही अर्थ प्रकट होता है । 'यथा नाम तथा गुणः' के अनुसार संस्कृत की विशेष व्युत्पत्ति इस नामकरण के औचित्य को और भी बढा देती है :-'राजन्ते शौय्यो दार्यादिगुणैर्देदीप्यन्ते ये (नराः)ते राजानस्तेषां स्थानं - आवासभूमिः राजस्थानम् ।' अर्थात् जो मनुष्य शौर्य-प्रौदार्यादि गुणों से सर्वाधिक सुशोभित हों, उन मनुष्यों के रहने का स्थान ‘राजस्थान' है । प्रान्त के वर्तमान नामकरण के रूप में संभवतः इस शब्द का प्रयोग सबसे पहिले प्रख्यात इतिहासकार कर्नल टॉड ने किया है जैसा कि उसकी पुस्तक 'एनल्स एण्ड एन्टिक्विटीज ऑफ राजस्थान' से प्रकट होता है। जब कि इससे पूर्व यहाँ की रियासतों के समूह के लिए 'राजपूताना' शब्द प्रचलित रहा है क्यों कि अंग्रेजों के ऐतिहासिक वत्तान्तों में यहाँ की रियासतों के लिये 'राजपूताना स्टेट्स' जैसे प्रयोग मिलते हैं।
यहाँ की रियासतों और इस भूभाग के लिए राजस्थान शब्द कब से प्रयोग में पाने लगा, यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना कि भारतवर्ष के इस भूखण्ड में आर्यसंस्कृति को जो सांस्कृतिक और साहित्यिक देन इस प्रांत ने अपने नाम के अनुरूप दी है, उसका है। राजस्थान वीरों का देश कहा गया है। यहां के निवासियों ने शताब्दियों से विदेशियों और विधर्मियों का सामना हर कीमत पर करना अपना धर्म और अन्तिम ध्येय समझा है। इतिहास साक्षी है कि धर्म और धरती के लिये जितना बलिदान यहां के वीरों ने किया है, वह भारत के इतिहास में ही नहीं अपि तु विश्व के इतिहास में अप्रतिम है।
बलिदान और तप से ओत-प्रोत यहाँ का इतिहास राजस्थान शब्द की पृष्ठभूमि में होने से राजस्थान शब्द के साथ 'वीर' शब्द का सान्निध्य सहज हो हो जाता है। भारतीय संस्कृति में वीरों का असाधारण महत्व समझकर उनका गुण
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