Book Title: Pravachansara ka Sar
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 10
________________ प्रवचनसार का सार यदि वे अपनी वाणी को सीमंधर परमात्मा से जोड़ते तो फिर अन्य साधु यह विचार करते कि हमें तो यह सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ। इसप्रकार उनके अंदर हीनभावना पनपती । भविष्य में लोग यह कहते कि कुन्दकुन्द तो प्रमाण हैं; क्योंकि वे सीमंधर परमात्मा से साक्षात् सुनकर आए थे; पर...... । ऐसी स्थिति में अन्य आचार्यों की वाणी पर स्वयमेव प्रश्नचिन्ह लग जाता । भूतबलि पुष्पदन्त तो गए नहीं थे, जिनसेनाचार्य तो गए नहीं थे, समन्तभद्र तो गए नहीं थे; अतः हम उन्हें प्रमाण माने या नहीं ? इसप्रकार चर्चायें न होने लगे इसकारण कुन्दकुन्दाचार्य यह नहीं चाहते थे कि उनकी इस व्यक्तिगत उपलब्धि के कारण अन्य आचार्यों की वाणी में प्रामाणिकता का प्रश्नचिह्न खड़ा हो जाए। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सीमंधरपरमात्मा के दर्शन उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि थी। वे यह जानते थे कि यदि वे विदेह क्षेत्र नहीं जाते तो भी भगवान महावीर की जो आचार्य परम्परा है; उसमें कोई अंतर नहीं आता । २० यदि पण्डित हुकमचन्द विदेश नहीं जाता तो क्या कम उपयोगी होता और विदेश जा आया है तो क्या अधिक उपयोगी हो गया ? ऐसे ही यदि कुन्दकुन्द सीमंधर परमात्मा के पास नहीं जाते तो भी उनकी महानता में कोई अन्तर आनेवाला नहीं था। यह उपलब्धि है तो अच्छी; परंतु आचार्य कुन्दकुन्द प्रत्येक प्रसंग को उस घटना से नहीं जोड़ना चाहते थे । प्रत्येक प्रसंग को उसी घटना से जोड़े जाने की सम्भावना थी; इसलिए उन्होंने स्वयं को वर्द्धमान स्वामी से जोड़कर प्रवचनसार को लिखने की प्रतिज्ञा की। यह तो पहले कहा ही जा चुका है कि प्रवचनसार तीन महाधिकारों में विभाजित है ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन एवं चरणानुयोग चूलिका । ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में चार अधिकार हैं - १. शुद्धोपयोगा 7 पहला प्रवचन २१ -धिकार २. ज्ञानाधिकार ३ सुखाधिकार और ४. शुभपरिणामाधिकार । शुद्धोपयोग १३वीं गाथा से आरंभ होता है । ६वीं गाथा से १२वीं गाथा तक पीठिका रूप में धर्म की चर्चा है। ७वीं गाथा में आचार्य कहते हैं - चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्ठो । मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो ॥ ७ ॥ ( हरिगीत ) चारित्र ही बस धर्म है वह धर्म समताभाव है । मोह-क्षोभविहीन निज परिणाम समताभाव है ॥ ७ ॥ चारित्र वास्तव में धर्म है, धर्म ही शम है, मोह-क्षोभ से रहित आत्मा का परिणाम ही शम है ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। उक्त गाथा को आधार बनाकर लोग हमसे कहते हैं कि देखो, धर्म तो चारित्र ही है, तुम्हारा सम्यग्दर्शन नहीं । वे इसतरह बात करते हैं कि जैसे हम चारित्र को मानते ही न हों। अरे भाई ! हम भी तो सच्चे दिल से यह स्वीकार करते हैं कि चारित्र ही धर्म है । अरे भाई ! अष्टपाहुड़ में यह भी तो लिखा है कि दंसणमूलो धम्मो अर्थात् सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है। मूल अर्थात् जड़ । सम्यग्दर्शन तो धर्म की जड़ है । जब सम्यग्दर्शनरूप जड़ होगी तभी चारित्ररूपी धर्म का वृक्ष उगेगा। देखो, जड़ जमीन के भीतर रहती है और वृक्ष ऊपर होता है। वृक्ष संपूर्ण जगत को दिखाई देता है। वृक्ष के फलों से, फूलों से, छाया से सारा जगत लाभान्वित होता है; परंतु जमीन के अंदर जो जड़ है; वह किसी को दिखाई नहीं देती। उस जड़ से लोक को कोई सीधा लाभ भी प्राप्त नहीं होता; लेकिन वह जड़ नहीं हो तो क्या तना खड़ा रह सकता है? क्या जड़ नहीं हो तो फल-फूल हो सकते हैं? तने का जितना विस्तार होता है; उसी अनुपात में जमीन के अंदर नीचे जड़ों का भी विस्तार होता है। यदि ऊपर एक शाखा दक्षिण की

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