Book Title: Pravachansara ka Sar Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 9
________________ प्रवचनसार का सार नहीं सीखना है, हमें आत्मा-परमात्मा की बातें सीखनी हैं। हमने तुम्हें आत्मा-परमात्मा की बात सुनने-समझने के लिए बुलाया है और तुम हमें नचा-नचा कर रिझाने लगे। ___ ऐसे ही कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं कि हमें वर्द्धमान तो चाहिए; लेकिन धर्मतीर्थ के कर्ता वर्द्धमान चाहिए अर्थात् जिनके प्रवचन का सार यह प्रवचनसार है - ऐसे वर्द्धमान चाहिए। भले ही वे आज सिद्ध हो गए हैं। लेकिन जब उनकी दिव्यध्वनि खिर रही थी, आचार्य कुन्दकुन्द ने उनके उस रूप को याद किया है। आचार्य कुन्दकुन्द ने धर्मतीर्थ के कर्ता वर्द्धमान भगवान को याद किया है; जिन्होंने घातिया कर्म धो डाले हैं एवं जो सुरेन्द्र, असुरेन्द्र एवं नरेन्द्र - इन तीनों के द्वारा वंदनीक है। संपूर्ण जगत जिन्हें मानता है - ऐसे सौ इन्द्रों ने इन्हें नमस्कार किया है, इन्हें मान्यता दे दी है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि संपूर्ण जगत इन्हें स्वीकार करता है। जिसप्रकार प्रधानमंत्री ने किसी समझौते पर हस्ताक्षर किए तो मानों संपूर्ण भारतवासियों ने हस्ताक्षर कर दिए, उस समझौते को मान लिया - ऐसा माना जाता है। उसीप्रकार सौ इन्द्रों ने जिनको नमस्कार किया है, जो धर्मतीर्थ के कर्ता हैं, जो चार घातिया कर्मों से रहित हैं; ऐसे अरहन्त अवस्था में विद्यमान भगवान वर्द्धमान को उन्होंने नमस्कार किया है; क्योंकि यह प्रवचनसार उनके प्रवचन का सार है। ___ मंगलाचरण में मात्र वर्द्धमान भगवान को ही नहीं, अपितु ‘शेषे पुण तित्थयरे' - ऐसा कहकर उन्होंने अन्य तीर्थंकरों को भी नमस्कार किया है। दूसरी, तीसरी गाथा के माध्यम से आचार्यदेव सिद्ध भगवान, ज्ञानदर्शन-चारित्र से सम्पन्न आचार्यदेव एवं मनुष्य क्षेत्र में रहनेवाले अरहंतों अर्थात् सीमंधरादिक विद्यमान बीस तीर्थंकरों को याद करते हैं। गणधर पहला प्रवचन शब्द का प्रयोग करके आचार्यों को, उपाध्याय को एवं साधुओं को याद किया, इसप्रकार संक्षेप में कहें तो आचार्यदेव ने नमस्कार मंत्र में समाहित सभी का स्मरण किया। पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार करके अंत में आचार्य कहते हैं कि अब मैं जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है; उस साम्यभाव का आश्रय लेता हूँ। इस मंगलाचरण की विशेषता यह है कि आचार्यदेव ने भगवान महावीर की वाणी से स्वयं को बुद्धिपूर्वक जोड़ा है। उन दिनों आचार्यदेव विदेह क्षेत्र से सीमंधर परमात्मा की दिव्यध्वनि सुनकर आए थे; अत: लोग उन्हें बारम्बार 'विदेह क्षेत्र से आए हुए कुन्दकुन्दस्वामी' - ऐसा सम्बोधन करते होंगे। लोग तो मेरे नाम के आगे भी जोड़ने लगे हैं कि देश-विदेश में प्रख्यात । जिनवाणी का थोड़ा-सा प्रचार किया तो लोग तुरंत विशेषण जोड़ने लगते हैं। क्या पण्डित हुकमचन्द विदेश में नहीं जाता तो क्या छोटा पण्डित होता ? परंतु लोग तो विदेश में जाने की बात को प्रतिदिन याद करते हैं। विदेह क्षेत्र की महिमा तो बहुत ही अधिक है; क्योंकि वहाँ साक्षात् सीमंधर परमात्मा विराजमान हैं। वे साक्षात् अर्हन्त परमात्मा के दर्शन करके आए थे। यह तो बहुत सौभाग्य का प्रसंग था। अत: उस समय लोग इस बात को बहुत याद करते होंगे। यही कारण है कि आचार्यदेव सोचते होंगे कि यदि मैंने इस प्रसंग को खोलकर नहीं कहा तो लोग मुझे सीमंधर परमात्मा की वाणी से जोड़ने लगेंगे, भगवान महावीर की वाणी से नहीं। परंतु आचार्यदेव बुद्धिपूर्वक अपनी कृतियों को भगवान महावीर की परम्परा से जोड़ना चाहते हैं। इसलिए उन्होंने मंगलाचरण के माध्यम से स्वयं को भगवान महावीर की परम्परा से जोड़कर प्रस्तुत किया है।Page Navigation
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