________________
प्रवचन - सारोद्धार
अक्षरों वाला नमस्कार मन्त्र सर्व मन्त्रों में प्रधान है। इसके अन्त में ३ चूलिकायें हैं जो क्रमश: १६-८-९ अक्षरों की हैं।'
सम्पदाओं के प्रथमपद ज्ञात हो जाने पर मध्य के पद स्वत: ज्ञात हो जाते हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए 'इरियावहियं' आदि सूत्रों की सम्पदाओं के प्रथम पद ही बताये गये हैं ।। ७९-८० ॥ २. इरियावहियं की सम्पदा : ८
१. इच्छामि पडिक्कमिउं, २. गमणागमणे. ३. पाणक्कमणे, ४. ओसा उत्तिंग, ५. जे मे जीवा विराहिया, ६. एगिंदिया, ७. अभिहया, ८. तस्स उत्तरी....ठामि काऊस्सग्गं ॥ ८१ ॥
नमुत्थुणं की सम्पदा : ९
'नमुत्थुणं' यह क्रिया (नमस्कार) पद होने से सम्पदा में नहीं गिना जाता ।
१. 'अरिहंताणं. भगवंताणं' इन दो पदों की प्रथम स्तोतव्य सम्पदा है। इसका अर्थ है कि अरिहंत भगवंत स्तुति योग्य हैं ।
प
३३
२. ‘आइगराणं...सयंसंबुद्धाणं' पर्यंत तीन पदों की स्तोतव्य सम्पदा की प्रधान साधारण- असाधारण गुणरूप दूसरी हेतु सम्पदा है। 'आइगराणं' स्तोतव्य का सामान्य हेतु है, कारण मोक्षावस्था से पूर्व संसारी अवस्था में सभी जीव जन्मधारण करने के स्वभाव वाले हैं, किन्तु तीर्थंकरत्व व स्वयं सम्बोधित्व स्तोतव्य के विशेष गुण हैं। ये गुण अरिहंत भगवंत में ही होते हैं ।
३. 'पुरिसुत्तमा पुरिसवरगंधहत्थीणं' यह चार पद वाली स्तोतव्य सम्पदा की असाधारण (विशेष) हेतु रूप तीसरी सम्पदा है। परमात्मा पुरुषोत्तम, सिंह, पुण्डरीक कमल व गंधहस्ती के गुणों से युक्त होने के कारण स्तोतव्य हैं ।
४. 'लोगुत्तमा .... लोग पज्जोअगराणं' इत्यादि पाँच पदों वाली स्तोतव्य सम्पदा की सामान्य उपयोग रूप चौथी सम्पदा है। तीर्थंकर परमात्मा लोकोत्तमादि गुणों के द्वारा लोकोपयोगी होने से स्तोतव्य हैं । ५. ‘अभयदयाणं...बोहिदयाणं' आदि पाँच पदों वाली सामान्य उपयोग सम्पदा की हेतुभूत पाँचवी उपयोग हेतु सम्पदा है। अभयदान, चक्षुदान, मार्गदान, शरणदान व बोधिदान परमात्मा की लोकोपयोगिता में हेतुभूत होने से यह उपयोग हेतु सम्पदा कहलाती है ।
६. धम्मदयाणं...आदि पाँच पदों के द्वारा स्तोतव्य सम्पदा की विशेष उपयोग सम्पदा बताई गई है । यह सम्पदा इस बात की सूचक है कि धर्मदान, धर्मदेशना, धर्मनायकता, धर्मसारथिपन, धर्मचक्रवर्त्तित्त्व आदि गुणों के द्वारा तीर्थंकर परमात्मा भव्यात्माओं के लिये विशेष उपयोगी हैं।
७. 'अप्पsिहय.......विट्टच्छउमाणं' यह दो पदों वाली स्तोतव्य सम्पदा की सातवीं सकारण स्वरूप सम्पदा है । अप्रतिहत ज्ञानदर्शन को धारण करने वाले, छद्यस्थता से रहित आत्मा ही अरिहंत होते हैं । ८. 'जिणाणं जावया...मुत्ताणं मोअगाणं' आदि चार पद वाली आठवीं आत्मतुल्य परकर्तृत्त्व सम्पदा है। प्रभु स्वयं जिन बने, संसार सागर से तरे व मुक्त बने वैसे दूसरों को भी बनाने में समर्थ हैं । यह सम्पदा इसकी सूचक है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org