Book Title: Pravachana Saroddhar Part 1
Author(s): Hemprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 426
________________ प्रवचन-सारोद्धार ३६३ २२. सम्यक्त्व-वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखना सम्यक्त्व है। क्रियावादी, अक्रियावादी आदि विभिन्न मतवालों की बातें सुनकर श्रद्धा से विचलित न होना। यह परीषह रूप है। आवश्यक के मतानुसार आवश्यक के मतानुसार २२वाँ असम्यक्त्व परीषह है। “मैं सभी पापों से विरत, महान् तपस्वी, नि:स्पृह शिरोमणि हूँ तथापि धर्म-अधर्म (पाप-पुण्य), देव, नारक आदि भाव मुझे दिखाई नहीं देते। इससे लगता है कि ये सब असत्य हैं।” यह असम्यक्त्व है। इस पर विजय प्राप्त करने के लिये मुनि को यह सोचना चाहिये कि धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप स्वरूप होने से कर्मपुद्गल रूप है। उन कर्मों का परिणाम प्रत्यक्ष है अत: उससे कारण रूप धर्म-अधर्म का अनुमान किया जा सकता है। क्योंकि निष्कारण कोई कार्य नहीं होता। उदाहरणार्थ-क्षमा धर्म रूप है, क्रोध अधर्म रूप है। ये दोनों ही स्वानुभव प्रत्यक्ष हैं। यदि उन्हें असत्य माने तो प्रत्यक्ष से विरोध होगा। अत: मानना होगा कि धर्म-अधर्म है। वैसे ही देव. अत्यन्तसखासक्त होने से. मनष्य लोक में उनके आगमन का कोई प्रबल कारण न होने से, दःषमकाल के प्रभाव से मर्त्यलोक में नहीं आते, अत: इनका प्रत्यक्ष नहीं होता। नरक के जीव अत्यन्त दुःखी व कर्म परतन्त्र होने से यहाँ नहीं आ सकते। इस प्रकार असम्यक्त्व परीषह पर विजय प्राप्त करना चाहिये ॥६८५-६८६ ॥ परीषहों का समवतार परीषहों का समवतार दो प्रकार का है:-१. प्रकृति समवतार और २. गुणस्थान समवतार । (i) प्रकृति समवतार-कौनसा परीषह किस कर्म के उदय का परिणाम है। (ii) गुणस्थान समवतार—कौनसा परीषह किस गुणस्थान तक उदय में आता है। • प्रकृति समवतार- ज्ञानावरणीय में—प्रज्ञा व अज्ञान परीषंह का समवतार होता है, क्योंकि ये दोनों ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम व उदय से जन्य हैं। . वेदनीयकर्म में क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश, मल, वध, रोग, चर्या, शय्या, तृणस्पर्श—इन ग्यारह परीषहों का समवतार होता है, क्योंकि ये वेदनीय कर्म से जन्य हैं। . दर्शनमोहनीय में सम्यक्त्व परीषह का अन्तर्भाव होता है। . चारित्र मोहनीय में आक्रोश, अरति, स्त्री, नैषेधिकी, अचेल, याचना, सत्कार-इन सात परीषहों का अन्तर्भाव होता है। अन्तराय में अलाभ परीषह का समवतार होता है। * चारित्र मोह से जन्य परीषह क्रमश: क्रोध, अरति, पुरुषवेद, भय-मोह, जुगुप्सामोह, मान कषाय, लोभ कषाय के परिणाम हैं। * अलाभ परीषह लाभान्तराय का परिणाम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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