Book Title: Pravachana Saroddhar Part 1
Author(s): Hemprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 444
________________ प्रवचन-सारोद्धार ३८१ दलिकों को लेकर सूक्ष्मसंपराय के काल-प्रमाण प्रथम स्थिति बनाता है, उसका वेदन करता है तथा एक समय न्यून दो आवलिका में बद्ध दलिकों की उपशमना भी करता है। सूक्ष्मसंपराय के अन्तिम समय में संज्वलन लोभ पूर्णरूपेण उपशान्त हो जाता है और आत्मा तत्क्षण उपशान्तमोही बन जाता है। इसका कालमान जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का है। तत्पश्चात् आत्मा का अवश्यमेव पतन होता है। पतन के दो कारण हैं—(i) भवक्षय या (ii) कालक्षय (i) भवक्षय-ग्यारहवें गुणस्थान में मरने वाला आत्मा निश्चित रूप से अनुत्तर विमान में जाता है। वहाँ उसे चौथा गुणस्थान ही मिलता है। ग्यारहवें गुणस्थान से आत्मा का यह पतन भवक्षय के कारण होता है। (ii) कालक्षय—'उपशान्तमोह' गुणस्थान का काल पूर्ण होने के पश्चात् आत्मा जिस रीति से ऊपर चढ़ा था, उसी रीति से पुन: नीचे आता है। जिन गुणस्थानों में जिन प्रकृतियों का बंध, उदय व उदीरणा का विच्छेद किया था, वहाँ पुन: उन्हें प्रारम्भ करता है। पतन का यह क्रम किसी आत्मा का प्रमत्त गुणस्थान में आकर रुकता है तो किसी का पाँचवें, चौथे यावत् सास्वादन गुणस्थान में रुकता है। उपशम श्रेणी कितनी बार? एक भव की अपेक्षाजघन्य = एक बार उत्कृष्ट = दो बार अनेक भव की अपेक्षा जघन्य व उत्कृष्ट संसार चक्र में ५ बार उपशम श्रेणी प्राप्त होती है। कर्मग्रन्थ के मतानुसार—जो आत्मा एक भव में दो बार उपशम श्रेणी करता है, वह उस भव में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकता किन्तु एक बार उपशम श्रेणी करने वाला क्षपक श्रेणी कर सकता है। आगम के मतानुसार—एक भव में एक ही श्रेणी होती है। श्रेणी..... मोहोपशमो एकस्मिन्, भवे द्विः स्यादसन्तत: । यस्मिन् भवे तूपशमः, क्षयो मोहस्य तत्र न ।। प्रश्न-उपशम श्रेणी का प्रारम्भ अविरति, देशविरति आदि गुणस्थानों में होता है तथा उन गुणस्थानों में सम्यक्त्वमोह मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी कषायों की उपशमना भी होती है अन्यथा मिथ्यात्वादि के उदय में सम्यक्त्व की प्राप्ति ही नहीं होगी। ऐसी स्थिति में मिथ्यात्वादि के पुन: उपशम की चर्चा कैसे संगत होगी? उत्तर—वहाँ उन प्रकृतियों का क्षयोपशम होता था यहाँ उपशम होता है अत: विसंगति का कोई प्रश्न नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504