Book Title: Pravachana Saroddhar Part 1
Author(s): Hemprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 479
________________ ४१६ द्वार ९८ आदानभण्ड सम्बन्धी - पूंजे प्रमार्जे बिना वस्त्र, पात्र आदि लेने या रखने से। उच्चारप्रस्रवण सम्बन्धी - अप्रत्युपेक्षित स्थंडिल में मात्रा आदि परठने से। मनोगुप्ति सम्बन्धी - मन से किसी का बुरा चिन्तन करने से। वचनगुप्ति सम्बन्धी -- बुरा वचन बोलने से। कायगुप्ति सम्बन्धी - विकथा करना..कषाय करना..शब्द रूप आदि विषयों की आसक्ति रखना... आचार्य आदि के प्रति प्रद्वेषभाव रखना... उनके बीच में बोलना.... दशविध समाचारी का सुचारु पालन न करना आदि दोषों का सहसा या अनाभोग से सेवन किया हो तो 'मिथ्यादुष्कृत' रूप प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त होता है ।। ७५१ ॥ ३. अनेक प्रकार के इष्ट-अनिष्ट शब्दादि विषयों में राग-द्वेष का अनुभव करना किन्तु मन में संशय करना कि “मैंने राग-द्वेष किया या नहीं।” ऐसे संशयात्मक दोष की स्थिति में पहले गुरु के संमुख आलोचना करके तत्पश्चात् गुरु की आज्ञा से 'मिच्छामि दुक्कडं' देना यह मिश्र प्रायश्चित्त होता है । ___यदि दोष-सेवन का निश्चय हो तो केवल मिच्छामि दुक्कडं से काम नहीं चलता परन्तु तपरूप 'प्रायश्चित्त' आता है ॥ ७५२ ॥ ४. किसी साधु ने उपयोगपूर्वक आहार, पानी, उपधि आदि ग्रहण की, परन्तु बाद में ज्ञात हुआ कि ये अनैषणीय है। ऐसी स्थिति में अनैषणीय का त्याग करना ही प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार पर्वत, राहू, धूअर, धूल आदि के कारण सूर्य के आवृत रहने से सूर्योदय न होने पर भी सूर्योदय हो गया अथवा सूर्यास्त होने पर भी अभी अस्त नहीं हुआ ऐसी भ्रान्तिवश असमय में आहारादि ग्रहण कर लिया हो और बाद में ज्ञात हो कि यह आहार असमय में गृहीत है, प्रथम प्रहर में गृहीत आहार चौथे प्रहर' तक रखा हो, दो कोश से अधिक दूर से लाया हुआ आहारादि हो तो ऐसी स्थिति में उनका 'त्याग' करना ही प्रायश्चित्त है। पूर्वोक्त दोष शठता और अशठता दो प्रकार से सेवन किये जाते हैं। शठता = विषय, विकथा, माया और क्रीडादि वश सेवन करना। अशठता = रोगी, गृहस्थ, परठने योग्य भूमि का अभाव या भयादि के कारण से सेवन करना। ५. यदि स्वप्न में प्राणी हिंसा, गमनागमन, नाव से समुद्र पार करना इत्यादि सावध दृश्य देखे हों या सूत्रविषयक उद्देश-समुद्देश, अनुज्ञा, प्रस्थापन, प्रतिक्रमण श्रुतस्कंध व अंगपरावर्तन आदि विधिपूर्वक न किये हों तो उसका परिहार करने के लिये कायोत्सर्ग रूप 'प्रायश्चित्त' आता है । ७५३ ॥ ६. जो मुनि सचित्त पृथ्वी आदि का संघट्टा करता है, उसे जीतकल्प आदि छेद ग्रन्थ के अनुसार छ: महीना तक, नीवि आदि तप करने का प्रायश्चित्त दिया जाता है। यह तप रूप प्रायश्चित्त है। ७. जिस मुनि के दोषों का शुद्धिकरण तप से नहीं हो सकता उसका दीक्षा पर्याय दोष के अनुपात में घटा दिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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